संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता के होने के बावजूद भारत में धीरे-धीरे भेदभावपूर्ण क़ानून बन रहे हैं. गोमांस खाने और उसकी ख़रीद बिक्री पर रोक संबंधी क़ानून कई राज्यों में लागू हैं. पिछले वर्षों में कई ऐसे क़ानून बन चुके हैं जो मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ हैं. धर्मांतरण से जुड़े हुए क़ानून मुसलमानों और ईसाइयों पर ही लागू किए जाते हैं. इसी तरह नागरिकता के क़ानून में संशोधन का क़ानून भी पारित हो गया.

 

अंग्रेज़ी की दुनिया में धर्मनिरपेक्षता पर बहस चल रही है. धर्मनिरपेक्षता पर हिंदी में किए गए हमले के साथ यह बहस शुरू हुई है. मौक़ा चुना गया आपातकाल की 50वीं सालगिरह का. आपातकाल को याद करने के बहाने धर्मनिरपेक्षता पर चौतरफ़ा हमला बोल दिया गया है.

सबसे पहले सरकार चलाने वाली भारतीय जनता पार्टी के पितृ संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के वरिष्ठ पदाधिकारी ने कहा कि वक्त आ गया है कि आपातकाल के दौरान 42वें संशोधन के माध्यम से भारतीय संविधान की प्रस्तावना में जोड़े गए धर्मनिरपेक्षता और समाजवाद जैसे शब्दों को हटा दिया जाए. उसके बाद भारत के उपराष्ट्रपति ने कहीं कठोर शब्दों का इस्तेमाल करते हुए इन शब्दों को नासूर कहा. संघीय सरकार के मंत्री शिवराज सिंह चौहान और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा शर्मा ने भी इन मूल्यों पर हमला किया.

इन सबके मुताबिक़ चूंकि समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता जैसे शब्द आपातकाल यानी तानाशाही के दौरान जोड़े गए थे, उन्हें जनतांत्रिक भारत में बने रहने देना उचित नहीं है.

लोक सभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी ने धर्मनिरपेक्षता पर इस हमले के जवाब में कहा है कि यह संविधान के बदले मनुस्मृति का विधान लाने की साज़िश है. वे और विपक्षी नेता याद दिला रहे हैं कि आरएसएस ने संविधान का विरोध किया था और उसकी जगह मनुस्मृति का प्रस्ताव किया था. लेकिन भाजपा और आरएसएस का कहना है कि वे इन शब्दों को हटाकर असली संविधान को बहाल कर रहे हैं जो बाबा साहब भीमराव आंबेडकर ने बनाया था और जिसकी प्रस्तावना में समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता शब्द नहीं थे.

क्या यह बहस मात्र इतनी है कि आपातकाल में एक तानाशाह के द्वारा संविधान में पैदा की गई ‘विकृति’ को दुरुस्त करना है? क्या यह मामला सिर्फ़ संविधान की प्रस्तावना को उसके मूल रूप में बहाल करने भर का है? अगर ऐसा है तो सिर्फ़ इन दो शब्दों को ही क्यों हटाने की बात हो रही है?

एक तीसरा शब्द भी आपातकाल में 42वें संशोधन के द्वारा प्रस्तावना में जोड़ा गया था. वह शब्द है अखंडता. यानी भारत को सिर्फ़ समाजवादी धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने की बात ही नहीं की गई, उसकी एकता के साथ अखंडता को बरकरार रखने का प्रण भी जोड़ा गया.

भाजपा इस तीसरे शब्द पर कोई बात नहीं कर रही है. अगर आपत्ति आपातकाल के दौरान संविधान के मूल रूप को विकृत करने से है तो क्या भाजपा इन तीनों शब्दों, यानी समाजवाद, धर्मनिरपेक्ष और अखंडता को हटाएगी? इसका उत्तर हमें पता है. आपत्ति प्रस्तावना में परिवर्तन से नहीं, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता, इन दो शब्दों से है. हमें विचार करना चाहिए कि भाजपा को इन शब्दों से क्यों एतराज है.

वंदिता मिश्रा ने इंडियन एक्सप्रेस में ठीक ही लिखा है कि हालांकि बात समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता दोनों शब्दों को हटाने की की जा रही है, असल निशाना धर्मनिरपेक्षता ही है. वह इसलिए कि समाजवाद एक आर्थिक विचारधारा है. और आपातकाल के बाद से आई सारी सरकारों की आर्थिक नीति में बहुत ज़्यादा फर्क नहीं रहा है. कांग्रेस का दावा है कि मनमोहन सिंह और नरसिम्हा राव ने नव उदारवादी नीतियों का सूत्रपात किया. वह बार-बार दावा करती है कि भाजपा कुछ नया नहीं कर रही, मात्र उसी की नीतियों की नक़ल कर रही है. कांग्रेसी नेताओं में अगर किसी एक के प्रति भाजपा सबसे अधिक आदर प्रदर्शित करती है तो वे राव ही हैं. फिर भी समाजवाद शब्द प्रस्तावना में बना हुआ है. उसे बने रहने दिया गया है जैसे भाजपा ने गांधी और आंबेडकर को बने रहने दिया है. राजकीय नीतियों में उन्हें पूरी तरह अप्रासंगिक कर देने के बाद भी.

लेकिन शायद बात इतनी सरल नहीं है.

कांग्रेस और भाजपा की आर्थिक नीति बिलकुल एक जैसी नहीं रही है. कांग्रेस भारत के लोगों के बीच संसाधनों या धन के बेहतर वितरण की बात करती है जो भाजपा कभी नहीं करती. वह लोगों को ज़िंदा भर रहने के लिए अनाज और कुछ रुपये देकर उन्हें लाभार्थियों में शेष कर देना चाहती है. ख़ासकर राहुल गांधी ने पिछले दिनों संसाधनों के बेहतर वितरण का इरादा बार-बार दुहराया है. हम कह सकते हैं कि कांग्रेस के लिए समाजवाद वही है जो डॉक्टर मार्टिन लूथर किंग के लिए था.

अभी न्यूयार्क के मेयर के लिए डेमोक्रेटिक पार्टी की उम्मीदवारी जीतनेवाले ज़ोहरान ममदानी ने डॉक्टर किंग को उद्धृत किया: ‘चाहें तो इसे लोकतंत्र कहें या लोकतांत्रिक समाजवाद कहें. (असल बात यह है कि) इस देश में ईश्वर की सभी संतानों के लिए धन का बेहतर वितरण होना चाहिए.’

प्रश्न सिर्फ़ ईश्वर की सभी संतानों के बीच संसाधनों के बेहतर वितरण का नहीं. यह भी है कि ईश्वरीय या प्राकृतिक संसाधन क्या पूंजीपतियों की मुनाफ़ाख़ोरी के लिए उनके हवाले कर दिए जाएंगे या ईश्वर की सारी संतानों का हक़ उन पर होगा? इस मामले में भाजपा और कांग्रेस में अंतर है. पानी, जंगल और ज़मीन के उपयोग के लिए दोनों के नज़रिए में फर्क है. इसीलिए मेधा पाटकर भाजपा के लिए देशद्रोही है. ज़ोहरान ममदानी पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने यह कहकर हमला किया कि वे 100% पागल कम्युनिस्ट हैं. भाजपा के लोग राहुल गांधी को अर्बन नक्सल या माओवादी कहते रहे हैं.

यह भी कम महत्त्वपूर्ण बात नहीं कि भारत के कॉरपोरेट जगत ने भाजपा को अपनी पार्टी बना रखा है. वे सिर्फ़ डर के मारे ही उसे चंदा नहीं देते, इसलिए देते हैं कि वह उनके हितों को सबसे अच्छी पहरेदार है. नरेंद्र मोदी में प्रधानमंत्री बनने की संभावना सबसे पहले रतन टाटा ने देखी थी. 2004 के बाद कांग्रेस सरकार ने प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल के लिए जो क़ानून बनाए पूंजीपति उनमें बदलाव चाहते हैं. पर्यावरण के प्रति दोनों के दृष्टिकोण में अंतर है. इसलिए समाजवाद शब्द का भी एक अर्थ बचा हुआ है. वह यह है कि क्या सरकारी या राजकीय नीतियां व्यापक समाज के लिए बनेंगी या कुछ पूंजीपतियों के लिए? भाजपा इस सीमित अर्थ में भी समाजवाद को ख़त्म कर देना चाहती है.

इसके बाद एक सवाल रह जाता है: क्या मामला दो साल की तानाशाह इंदिरा गांधी के प्रत्येक स्पर्श और चिह्न को मिटा देने का है क्योंकि उससे तानाशाही की बू आती है? यानी क्या संविधान की प्रस्तावना को मूल रूप में बहाल करके उसके असली गठन, असली स्वरूप की बहाली तक ही बात रह जाएगी? क्योंकि अगर प्रस्तावना को संविधान के आपातकाल पूर्व रूप में बहाल करने की इच्छा है तो भारत की अखंडता को भी हटाना पड़ेगा.

अगर संविधान को मूल रूप में वापस लाना मक़सद है, जिसे बाबा साहब का संविधान कहा जा रहा है, तो 42वें संशोधन के ज़रिए जोड़े गए बुनियादी कर्तव्यों के अंश को भी हटाना पड़ेगा. क्या भाजपा यह करेगी? वह तो पिछले 11 साल से अधिकारों की जगह कर्तव्यों पर ही लगातार ज़ोर दे रही है.

इसलिए यह कहा जा सकता है कि बात इतनी ही नहीं कि प्रस्तावना के मूल स्वरूप को बहाल किया जाए. असली इरादा धर्मनिरपेक्षता को ही हटा देने का है. और वह मात्र प्रस्तावना से नहीं. सारी राजकीय नीतियों से.

आप 2019 के चुनाव में भाजपा की जीत के बाद उसके सर्वोच्च नेता नरेंद्र मोदी के भाषण की याद करें. मोदी ने अपने सांसदों के सामने डींग मारते हुए कहा कि 2014 से 2019 के बीच पूरी सेक्युलर जमात ने सेक्युलर शब्द का इस्तेमाल करना बिल्कुल बंद कर दिया है. बात ग़लत न थी. जो ख़ुद को सेक्युलर कहते रहे थे ,सेक्युलरिज्म या धर्मनिरपेक्षता शब्द के प्रयोग में उन्हें हिचकिचाहट होने लगी. शायद ही किसी विपक्षी नेता ने इन सालों में इस शब्द के बारे में बात की हो या इसका उच्चारण भी किया हो. सबके सब ख़ुद को असली, सहिष्णु हिंदू साबित करने में लगे रहे.

इन 11 सालों में बार-बार धर्मनिरपेक्षता को पश्चिमी अवधारणा कहकर तिरस्कृत किया जाता रहा है. तमिलनाडु के राज्यपाल ने कुछ समय पहले कहा कि यह भारतीय परिवेश के अनुरूप नहीं है. प्रश्न भारतीय और पश्चिमी का नहीं. क्या भारतीय, विशेषकर हिंदू चाहेंगे कि यूरोप के देश या अमेरिका धर्मनिरपेक्ष न रह जाएं? क्यों वे पिछले दिनों बांग्लादेश को याद दिलाते रहे कि उसे सेक्युलर होना चाहिए? क्यों वे पाकिस्तान को ख़ुद से हीन मानते हैं? इसीलिए न कि वह सेक्युलर नहीं है?

वहां राज्य इस्लामी रंग में रंगा हुआ है, इसलिए बुरा है. इस्लाम को राजकीय नीतियों का स्रोत नहीं होना चाहिए. हिंदू हों या सिख या ईसाई, सबको समान अधिकार होने चाहिए. तो क्या मसला इस्लामी रंग के ही बुरे होने का है? या बात यह है कि किसी भी एक धर्म की जीवन पद्धति या उसके सामाजिक आचार बाकियों पर लागू नहीं किए जाने चाहिए? वह धर्म कोई भी हो: इस्लाम या ईसाई या यहूदी या हिंदू या बौद्ध. प्रश्न किसी धर्म के अच्छे या बुरे होने का नहीं है. प्रश्न किसी एक धर्म के मानने वालों के रहन सहन, तौर तरीक़ों को बाक़ी लोगों पर आरोपित करने का या न करने का है सिर्फ़ इस आधार पर कि वे उस भौगोलिक क्षेत्र में बहुसंख्या में हैं.

एक हिंदू ऋषि सुनक इंग्लैंड का प्रधानमंत्री कैसे बनेगा अगर धर्मनिरपेक्षता का सिद्धांत इंग्लैंड न माने? या एक भारतीय मूल का ज़ोहरान ममदानी न्यूयॉर्क के मेयर का चुनाव कैसे लड़ सकेगा अगर अमेरिका धर्मनिरपेक्ष न हो? या कनाडा में सिख या हिंदू मंत्री कैसे बन सकेंगे या प्रधानमंत्री के पद के उम्मीदवार भी कैसे बनेंगे अगर वह धर्मनिरपेक्ष देश न हो? अगर इन सारे देशों के लिए धर्मनिरपेक्षता अच्छी है तो हमारे लिए वह बुरी क्योंकर हो गई?

कई बुद्धिजीवी यह तर्क देते रहे हैं कि यह पाश्चात्य अवधारणा है इसलिए हमारे अनुकूल नहीं. तो क्या भौगोलिक परिवेश तय करेगा कि कौन सा विचार अपनाना है, कौन नहीं? फिर भारतीय भूभाग में उत्पन्न कोई भी विचार पश्चिम क्यों अपनाए?

कुछ दिन पहले तक भाजपा और आरएसएस के लोग कहा करते थे कि भारत इसलिए धर्मनिरपेक्ष है क्योंकि यहां हिंदू बहुसंख्यक हैं. फिर यूरोप या अमेरिका या अफ़्रीका के देशों के बारे में क्या कहेंगे? क्या वे इसलिए धर्मनिरपेक्ष हैं कि वहां की बहुसंख्यक जनता ईसाई है?

अगर हम यह मानते हैं, जैसा संविधान सभा के सदस्य लोकनाथ मिश्रा ने कहा कि भारत की धर्मनिरपेक्षता हिंदुओं की उदारता का परिणाम है तो फिर तुर्की या बाक़ी देशों में उसका जारी रहना उन देशों के बहुसंख्यकों की उदारता का परिणाम है? क्या हर देश को इस्राइल की तरह हो जाना चाहिए जो ख़ुद को यहूदियों का देश मानता है?

अगर आज से पहले हिंदुओं की श्रेष्ठता का प्रमाण उसका धर्मनिरपेक्ष चरित्र था तो फिर भाजपावाले आज हिंदुओं को उनके श्रेष्ठ पद से पतित क्यों करना चाहते हैं?

भाजपा के लोगों और उसके समर्थकों को ईमानदारी से ख़ुद से पूछना चाहिए कि क्या वे धर्मनिरपेक्षता शब्द को मात्र प्रस्तावना से हटाना चाहते हैं या संविधान के धर्मनिरपेक्ष चरित्र को ही ख़त्म कर देना चाहते हैं. उनका असल इरादा तब प्रकट हुआ जब उपराष्ट्रपति ने कुछ दिन पहले सर्वोच्च न्यायालय पर यह कहकर हमला किया कि वह कैसे संविधान की बुनियादी संरचना को अपरिवर्तनीय कह सकता है. केशवानंद भारती वाले मुक़दमे में और उसके बाद भी बार-बार सर्वोच्च न्यायालय ने कहा है कि संसद ऐसे क़ानून नहीं बना सकती जो संविधान की बुनियादी संरचना को प्रभावित करे. उस बुनियादी संरचना का हिस्सा है धर्मनिरपेक्षता. कोई भी क़ानून ऐसा नहीं बनाया जा सकता जो इसके साथ समझौता करे. उपराष्ट्रपति को असल दिक़्क़त इसी से है. इसलिए वे बुनियादी संरचना में संशोधन चाहते हैं.

संविधान के अध्येताओं ने बतलाया है कि प्रस्तावना में भले उल्लेख न हो, संविधान का पूरा चरित्र धर्मनिरपेक्ष है. संविधान किसी धर्म, भाषा या किसी भी आधार पर किसी के साथ भेदभाव की मनाही करता है. संविधान सभा ने अनुच्छेद 25, 26 और 27 को धर्मनिरपेक्षता के मक़सद को ही पूरा करने के लिए ही अपनाया.

संविधान बनाते समय इस बात को लेकर आम सहमति थी कि भारत को एक जनतांत्रिक गणतंत्र बनना है. वास्तविक जनतंत्र का मतलब है हर प्रकार की बराबरी. वह बिना धर्मनिरपेक्षता के कैसे संभव है? आख़िर धर्मनिरपेक्षता का अर्थ मात्र चर्च और राज्य के बीच पूर्ण अलगाव नहीं था, बल्कि किसी एक धर्म की सामाजिक व्यवस्था को सारी आबादी पर आरोपित करने से रोकने का एक तरीक़ा था.

राजकीय नीति के रूप में यह इसलिए ज़रूरी था कि इस बात की आशंका हमेशा ही बनी रहती है कि हम अपने पूर्वग्रहों से प्रेरित होकर व्यवस्था करें या क़ानून बनाएं.

नेहरू ने इस कठोर यथार्थ को समझकर धर्मनिरपेक्षता का मूल्य समझाया: ‘यह एक ऐसा आदर्श है जिसे अपनाना हमारा लक्ष्य है और हममें से हर कोई चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, सिख हो या ईसाई, हम जो भी हों, हममें से कोई भी अपने दिल में यह नहीं कह सकता कि उसके मन या दिल में कोई पूर्वाग्रह या सांप्रदायिकता का कोई दाग नहीं है.’

इस पूर्वाग्रह से व्यक्ति मुक्त न हो लेकिन राज्य को उससे बचाने का तरीक़ा तो धर्मनिरपेक्षता ही है. नेहरू ने इसे अपनाने का तर्क दिया, ‘हमने वही किया है जो हर देश करता है, कुछ गुमराह और पिछड़े देशों को छोड़कर.’ हो सकता है उनके सामने पाकिस्तान हो. आज अगर हम धर्मनिरपेक्षता को त्याग दें तो किन मुल्कों की क़तार में खड़े दिखेंगे?

गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, आंबेडकर ने क्या कहा, यह अपनी दिशा चुनने का आधार नहीं हो सकता. हम अपने विवेक का इस्तेमाल करें और अपना सिद्धांत चुनें.

संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता के होने के बावजूद भारत में धीरे-धीरे भेदभावपूर्ण क़ानून बन रहे हैं. गोमांस खाने और उसकी ख़रीद बिक्री पर रोक संबंधी क़ानून कई राज्यों में लागू हैं. आपसी रिश्ते बनाने को लेकर भी ऐसे क़ानून बन चुके हैं जो मुसलमानों और ईसाइयों के ख़िलाफ़ हैं. धर्मांतरण से जुड़े हुए क़ानून भी मुसलमानों और ईसाइयों पर ही लागू किए जाते हैं. संविधान की प्रस्तावना में धर्मनिरपेक्षता के रहने के बावजूद नागरिकता के क़ानून में संशोधन का क़ानून भी पारित हो गया. और मुसलमान औरतों को न्याय दिलाने के नाम पर तीन तलाक़ वाला क़ानून भी पारित हुआ जो स्पष्ट रूप से मुसलमान पुरुषों के ख़िलाफ़ है.

इस प्रकार का कोई क़ानून वैसे हिंदू पुरुषों के लिए नहीं बनाया गया है जो बिना प्रक्रिया के अपनी पत्नियों से संबंध तोड़ लेते हैं. उनके ख़िलाफ़ किसी क़ानून के तहत आप मुक़दमा नहीं चला सकते क्योंकि उन्होंने तो कोई तलाक़ लिया ही नहीं है!

यह सब पिछले 11 वर्षों में और तेज हो गया है. उसके बावजूद धर्मनिरपेक्षता शब्द भाजपा के कलेजे में कांटे की तरह चुभ रहा है. भाजपा के पितृ संगठन आरएसएस ने सरदार पटेल के दबाव में और अपने ऊपर से पाबंदी हटवाने के लिए भारतीय संविधान की शपथ ले ली लेकिन भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने का अपना लक्ष्य नहीं छोड़ा.

आज राज्य तंत्र पूरी तरह उसके क़ब्ज़े में है. इसके सहारे वह इस शब्द को प्रस्तावना से हटा सकता है.

भाजपा जो करे, हमारे सामने सवाल यह है कि क्या धर्मनिरपेक्षता के अलावा और कोई रास्ता है जिसपर चलकर हम एक अच्छे, भले समाज बन सकें? अगर वह है तो ज़रूर उसे अपनाया जाना चाहिए. इसकी फ़िक्र छोड़कर कि 75 साल पहले हमारे पूर्वजों ने अपने लिए क्या रास्ता चुना था.

गांधी, नेहरू, पटेल, बोस, आंबेडकर ने क्या कहा, यह हमारे लिए अपनी दिशा चुनने का आधार नहीं हो सकता. वे अपना रास्ता चुन रहे थे. हम अपने विवेक का इस्तेमाल करें और अपना सिद्धांत चुनें. वह हमारा पथ प्रदर्शक होगा.

आख़िरकार डॉक्टर आंबेडकर ने संविधान में कोई भी पत्थर की लकीर खींचने से इनकार करते हुए कहा था ‘राज्य की नीति क्या होनी चाहिए, समाज को उसके सामाजिक और आर्थिक पक्ष में कैसे संगठित किया जाना चाहिए, ये ऐसे मामले हैं जिनका निर्णय लोगों को समय और परिस्थितियों के अनुसार स्वयं करना चाहिए. इसे संविधान में निर्धारित नहीं किया जा सकता क्योंकि इससे लोकतंत्र पूरी तरह नष्ट हो जाएगा.’

संविधान निर्माताओं ने अगली पीढ़ियों के विवेक पर भरोसा किया था. आज हम तय करें कि अपने सामाजिक और आर्थिक पक्ष को किस प्रकार संगठित करना है और हमारे ऊपर उनके विश्वास को सही साबित करें.

 

Source: The Wire