वर्ष 2008 के मालेगांव विस्फोट मामले की पूर्व विशेष लोक अभियोजक रोहिणी सालियान, जिन्होंने 2015 में आरोप लगाया था कि सरकार ने एनआईए के माध्यम से उनसे आरोपियों के प्रति ‘नरम’ रुख अपनाने का आग्रह किया था. अब उन्होंने कहा कि यह तो पता ही था कि ऐसा होगा.

 

नई दिल्ली: वर्ष 2008 के मालेगांव विस्फोट मामले की पूर्व विशेष लोक अभियोजक रोहिणी सालियान, जिन्होंने 2015 में आरोप लगाया था कि सरकार ने राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) के माध्यम से उनसे आरोपियों के प्रति ‘नरम’ रुख अपनाने का आग्रह किया था, ने अब मामले को संभालने के तरीके में गंभीर खामियों की ओर इशारा किया है.

महाराष्ट्र के पूर्व मुख्य सरकारी अभियोजक ने आरोप लगाया है कि मामले का परिणाम लोगों की ‘सामूहिक विफलता’ थी, जो कानूनी/प्रक्रियात्मक विसंगतियों और समय के साथ पर्दे के पीछे के दबाव के कारण हुआ.

इंडियन एक्सप्रेस से बात करते हुए उन्होंने आरोप लगाया, ‘यह तो पता ही था कि ऐसा होगा. अगर आप ठोस सबूत ही पेश नहीं करेंगे तो और क्या उम्मीद की जा सकती है? मैं वो अभियोजक नहीं थी जिसने आखिरकार अदालत में सबूत पेश किए. मैं 2017 से ही बाहर थी, और उससे पहले मैंने ढेर सारे सबूत पेश किए थे और सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें सही ठहराया था. वो सब कहां गायब हो गए?’

उन्होंने कहा, ‘मैं इस फैसले से निराश भी नहीं हूं क्योंकि ये मेरे लिए रोज़मर्रा की बात हो गई है. जब ऐसा बार-बार होता है तो हम अपनी संवेदनशीलता खो देते हैं. कोई नहीं चाहता कि सच सामने आए. हम बहुत मेहनत करते हैं, लेकिन कोई नहीं चाहता कि हम ऐसा करें. आख़िर ये किसकी नाकामी है? हमारी अपनी – जनता की.’

उन्होंने आगे कहा कि सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि उसे भी जनता ने ही चुना है.

मिड-डे से बात करते हुए सालियान ने आगे आरोप लगाया कि महाराष्ट्र आतंकवाद निरोधक दस्ते (एटीएस) द्वारा एक ठोस जांच के रूप में शुरू की गई जांच धीरे-धीरे बिखर गई, कमजोर सबूतों के कारण नहीं, बल्कि संस्थागत और राजनीतिक अखंडता के कथित पतन के कारण.

उन्होंने विस्तार से बताया कि एटीएस ने मामले में 90 दिनों के भीतर आरोपपत्र दाखिल कर दिया था, जिससे आरोपियों को ज़मानत से बचने की कानूनी समय-सीमा पूरी हो गई. गवाहों के बयान और स्वीकारोक्ति मजिस्ट्रेट के सामने दर्ज करने के बजाय सीआरपीसी की धारा 164 के तहत दर्ज किए गए.

हालांकि, जब 2011 में मामला एनआईए को सौंपा गया, तो एजेंसी ने पहले से दायर आरोपपत्र पर आगे बढ़ने के बजाय दोबारा जांच करने का विकल्प चुना. एजेंसी के अनुसार, पहले के सबूत झूठे थे.

उन्होंने आरोप लगाया कि इससे देरी हुई और विसंगतियां पैदा हुईं.

दिलचस्प बात यह है कि सालियान ने एटीएस के आरोपपत्र की जांच की थी.

राजनीतिक हस्तक्षेप के आरोप

सालियन ने 2015 से कई बार आरोप लगाया है कि जब से केंद्र में सरकार बदली है (2014 में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार सत्ता में आई) और राज्य में (देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार), उन पर आरोपियों के खिलाफ ‘धीमी कार्रवाई’ करने का दबाव डाला गया.

उन्होंने मिड-डे को बताया कि एक सरकारी वकील के तौर पर उनकी भूमिका राज्य का निष्पक्ष प्रतिनिधित्व करना था और बिना किसी न्यायिक आदेश के उन्हें ‘धीमी गति से काम करने’ के लिए कहना संविधान के अनुच्छेद 21 (निष्पक्ष सुनवाई का अधिकार) और अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता) का उल्लंघन है.

सालियन ने कहा, ‘सुप्रीम कोर्ट ने शिवनंदन पासवान बनाम बिहार राज्य, 1987 जैसे कई फैसलों में अभियोजन पक्ष के विवेक पर अनुचित प्रभाव डालने के खिलाफ चेतावनी दी है.’

2015 में एक्सप्रेस से बात करते हुए उन्होंने दावा किया था कि उन्हें एनआईए के एक अधिकारी का फ़ोन आया था और उन्होंने बात करने के लिए आने को कहा था. सलियन ने आरोप लगाया था, ‘वह फ़ोन पर बात नहीं करना चाहते थे. वह आए और मुझसे कहा कि एक संदेश है कि मुझे नरम रुख अपनाना चाहिए.’

उन्होंने यह भी आरोप लगाया था कि उस महीने की शुरुआत में सत्र न्यायालय में मामले की नियमित सुनवाई से पहले उन्हें बताया गया कि ‘उच्च अधिकारी’ नहीं चाहते कि वह महाराष्ट्र की ओर से अदालत में पेश हों और एक अन्य वकील कार्यवाही में भाग लेगा.

इसके बाद एनआईए ने अपने वकीलों के पैनल से सालियान को डी-नोटिफाई कर दिया. उन्होंने अखबार को बताया, ‘आखिरी बार जब मुझे पता चला था, तब मामला सुप्रीम कोर्ट में लंबित था. आज मुझे अपनी डी-नोटिफाई स्थिति के बारे में निश्चित नहीं हूं.’

मिड-डे से बात करते हुए उन्होंने कहा, ‘जब कानून प्रवर्तन एजेंसियां सत्ता में बैठे लोगों को खुश करने के लिए गुप्त उद्देश्यों से काम करती हैं, तो न्याय का पटरी से उतरना कोई आश्चर्य की बात नहीं है.’

संस्थागत जवाबदेही पर चिंता जताते हुए उन्होंने कहा कि उनके अनुसार, यह केवल एक प्रक्रियागत चूक नहीं, बल्कि एक संवैधानिक विफलता है.

उन्होंने कहा, ‘यह लोकतांत्रिक विवेक का आह्वान है, जवाबदेही केवल न्यायिक नहीं है, बल्कि व्यापक रूप से जनता की है – हम, लोग – और मालेगांव निर्णय अपराध और आतंकवाद के पीड़ितों को न्याय दिलाने में लोगों की सामूहिक विफलता है.’

 

Source: The Wire