मैसूर, कर्नाटक — विश्वप्रसिद्ध मैसूर दशहरा उत्सव, जो सदियों पुरानी सांस्कृतिक विरासत और कर्नाटक की पहचान का प्रतीक माना जाता है, इस बार एक बड़े विवाद की भेंट चढ़ता नजर आ रहा है। कर्नाटक सरकार द्वारा प्रतिष्ठित कन्नड़ लेखिका और बुकर पुरस्कार विजेता बानो मुश्ताक को 2025 के दशहरा समारोह का उद्घाटनकर्ता नियुक्त करने के निर्णय ने राजनीतिक हलकों में हलचल मचा दी है।
सरकार के इस फैसले को जहां प्रगतिशील कदम के रूप में देखा जा रहा था, वहीं भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने इसका तीखा विरोध किया है। पार्टी के कुछ वरिष्ठ नेताओं द्वारा दिए गए बयान न सिर्फ विवादित हैं, बल्कि राज्य की सांझी सांस्कृतिक परंपरा पर भी सवाल खड़े कर रहे हैं।
भाजपा के एक पूर्व सांसद ने यहां तक कह दिया कि “बानो मुश्ताक का धर्म पूजा-पाठ की अनुमति नहीं देता, इसलिए उन्हें दशहरा जैसे धार्मिक उत्सव का उद्घाटन नहीं करना चाहिए।” यह बयान तीव्र आलोचना का कारण बना है और इसे धार्मिक असहिष्णुता और लैंगिक भेदभाव का उदाहरण बताया जा रहा है।
विश्लेषकों का कहना है कि बानो मुश्ताक को लेकर विरोध केवल धार्मिक नहीं, बल्कि लैंगिक आधार पर भी पूर्वाग्रह को दर्शाता है। बानो मुश्ताक न केवल एक सम्मानित लेखिका हैं, बल्कि उन्होंने अपने लेखन में महिलाओं की स्वतंत्रता, समानता और सामाजिक न्याय के मुद्दों को प्रमुखता से उठाया है। उनकी चर्चित कृति “हार्ट लैंप” ने कन्नड़ साहित्य को वैश्विक स्तर पर पहचान दिलाई है।
इतिहासकारों की मानें तो मैसूर दशहरे के उद्घाटन की परंपरा हमेशा समावेशी रही है। प्रसिद्ध मुस्लिम कवि प्रो. निसार अहमद भी इस उत्सव का उद्घाटन कर चुके हैं। इसके अलावा हैदर अली और टीपू सुल्तान जैसे मुस्लिम शासकों ने दशहरे के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। ऐसे में बानो मुश्ताक की धार्मिक पहचान पर सवाल उठाना न केवल संविधान के मूल्यों के खिलाफ है, बल्कि राज्य की बहुलतावादी परंपरा को भी आघात पहुंचाता है।
राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि यह विरोध एक खतरनाक प्रवृत्ति की ओर इशारा करता है, जहां सांस्कृतिक आयोजनों का राजनीतिकरण करके उन्हें संकीर्ण विचारधारा के हवाले किया जा रहा है।
सरकार की ओर से अब तक कोई आधिकारिक प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन साहित्यिक और सामाजिक संगठनों ने बानो मुश्ताक के समर्थन में आवाज उठाई है और सरकार से अपील की है कि वह अपने निर्णय पर कायम रहे।
इस पूरे विवाद ने एक बार फिर यह सवाल खड़ा कर दिया है—क्या आज भी भारत में धर्म और लिंग किसी व्यक्ति की सार्वजनिक पहचान और सम्मान का निर्धारण करते हैं? और क्या कला और साहित्य के क्षेत्र में सर्वोच्च योगदान देने वाले व्यक्ति को केवल उसकी धार्मिक पहचान के आधार पर खारिज कर देना स्वीकार्य है?
बानो मुश्ताक स्वयं अब तक इस विवाद पर सार्वजनिक रूप से कुछ नहीं बोली हैं, लेकिन उनका नाम अब एक समावेशी भारत की प्रतीक बनता जा रहा है—एक ऐसा भारत, जो साहित्य, संस्कृति और समानता के मूल्यों पर खड़ा है।







