शिक्षा का भगवाकरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार की सबसे महत्वाकांक्षी और पुरानी परियोजनाओं में से एक है. वह जानता है कि इस बहुधर्मी, बहुभाषी देश को हिंदू राष्ट्र के सांचे में ढालने का लक्ष्य तब तक पूरा नहीं हो सकता, जब तक देशवासियों, खासकर युवाओं, के दिलो-दिमाग और सोच-सरोकारों पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित न कर ले.

 

शिक्षा के भगवाकरण की नरेंद्र मोदी सरकार की उतावली अब फिलहाल किसी से भी छिपी नहीं है. कई प्रेक्षकों के अनुसार इस उतावली के पीछे गत लोकसभा चुनाव में चार सौ पार के नारे के विपरीत उसकी लोकसभा सीटों का साधारण बहुमत से भी कम 240 पर सिमट जाना है. कहते हैं कि इससे उसके अंदर यह असुरक्षा घर कर गई है कि चूंकि अब कोई भी पल अंतिम हो सकता है, इसलिए उसके पास समय नहीं है और ‘अभी नहीं तो कभी नहीं’ की स्थिति सामने है.

उसे मालूम है कि उसकी तो उसकी, उसकी इस उतावली की उम्र भी उसकी समर्थक तेलुगुदेशम, जद (यू) और लोकजनशक्ति आदि पार्टियों के रहमो-करम पर निर्भर है. क्या पता कब उसकी सत्ता की इमारत की ईंटें खिसकनी शुरू हो जाएं और सारे मंसूबे धरे रह जाएं.

इसके बावजूद उसने पिछले दिनों शिक्षा के भगवाकरण के अपने ‘अभियान’ को राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) की विभिन्न कक्षाओं की पाठ्य-पुस्तकों को विकृत करने तक पहुंचा दिया, साथ ही शिक्षाविदों द्वारा उसके अनेक नुकसान गिनाए जाने के बावजूद कदम पीछे खींचना गवारा न करके पक्का कर दिया कि वे पाठ्य पुस्तकें पढ़ने वाले छात्र आधे-अधूरे व दूषित सत्यों व तथ्यों के सबसे आसान शिकार बन जाएं और यह तक सोचना गवारा नहीं किया कि देश के भविष्य को इसकी कितनी बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ सकती है, तो कई हल्के बहुत हैरतजदा दिखे.

शायद उन्हें मालूम नहीं था या सायास वे भूल गए कि शिक्षा का भगवाकरण राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (भाजपा और उसकी मोदी सरकार जिसके द्वारा सांस्कृतिक संगठन का चोला धारण करके की जाती रही सत्ता की राजनीति की संतानें हैं) परिवार की सबसे महत्वाकांक्षी और पुरानी परियोजनाओं में से एक है.

इसलिए कि इस परिवार से बेहतर कोई नहीं जानता कि वह इस बहुधर्मी, बहुभाषी और बहुसंस्कृत देश को मनुवादी समाज व्यवस्था पर आधारित हिंदू राष्ट्र के सांचे में ढालने का अपना लक्ष्य तब तक पूरा नहीं कर सकता, जब तक देशवासियों, खासकर युवाओं, के दिलो-दिमाग और सोच-सरोकारों पर प्रभावी नियंत्रण स्थापित न कर ले.

पुरानी है मुराद

स्वाभाविक ही, उसे लगता है कि इस नियंत्रण का सबसे आसान उपाय शिक्षा को तदनुसार अनुकूलित करना और उसके माध्यम से मनुवादी विचारधारा को प्रक्षेपित करना है. इसीलिए उसने एक बार शिक्षा के भगवाकरण की परियोजना अपने हाथ में ली तो न कभी उसे छोड़ा, न ही उससे विमुख हुआ. यह बात और है कि इस परियोजना को आगे बढ़ाने का जैसा सुनहरा अवसर उसको 2014 में केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की अकेले अपने दम पर पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने के बाद हासिल हुआ, इससे पहले कभी नहीं मिला.

लेकिन दुर्दिन में, कहना चाहिए, भारतीय जनता पार्टी के पूर्वावतार भारतीय जनसंघ के दौर में भी इस परियोजना के प्रति उसके समर्पण में कोई कोर-कसर नहीं रही.

1967 के आम चुनाव के बाद की स्थिति में इसे बहुत साफ ढंग से देखा जा सकता है, जब समाजवादी नेता डॉ. राममनोहर लोहिया द्वारा प्रवर्तित गैर-कांग्रेसवाद थोड़ा सफलीभूत होता दिखा और उत्तर भारत के कई प्रदेशों में गैरकांग्रेसी संयुक्त विधायक दल (संविद) सरकारें अस्तित्व में आईं.

इन सरकारों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ द्वारा स्थापित व नियंत्रित भारतीय जनसंघ भी शामिल था, जिसने इस परियोजना पर तेजी से अमल के लिए अपना (यानी अपने दल का) शिक्षामंत्री बनाये जाने पर इतना जोर दिया कि वह जोर इन सरकारों में उसके शामिल होने की शर्त जैसा नजर आने लगा.

देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की बात करें तो चौधरी चरण सिंह ने कांग्रेस से इस्तीफा देकर अपनी अगुआई में संविद सरकार बनाई तो उसमें जनसंघ सबसे बड़ा घटक दल था. उसने इस स्थिति का लाभ उठाकर चौधरी चरण सिंह से स्थानीय प्रशासन और सहकारिता के अतिरिक्त शिक्षा विभाग भी ले लिया.

इसके पीछे उसका स्पष्ट उद्देश्य शिक्षा के भगवाकरण की अपनी परियोजना को तेजी से आगे बढ़ाना था. इसीलिए बाद में चौधरी चरण सिंह ने ये विभाग उससे ले लिए और सार्वजनिक कार्य व पशुपालन विभाग दे दिए तो उसने अपनी गंभीर नापसंदगी जाहिर की. उसका दुर्भाग्य कि चरण सिंह की यह सरकार लंबे समय तक चल ही नहीं पाई, जिससे अपनी भगवाकरण परियोजना की गति तेज करने के उसके अरमान अधूरे रह गए.

दूसरी ओर बिहार, मध्य प्रदेश व राजस्थान आदि प्रदेशों में भारतीय जनसंघ के शिक्षामंत्रियों ने अपनी सीमाओं में उक्त परियोजना की दिशा में कुछ कदम बढ़ाये भी तो तत्कालीन परिस्थितियों में उन्हें बहुत दूर तक नहीं ले जा पाए.

इसके कोई दशक भर बाद 1977 के लोकसभा व विधानसभा चुनावों में कांग्रेस ने फिर मुंह की खाई और जनता पार्टी की सरकारों का दौर आया तो भी जनता पार्टी में विलीन हो चुके भारतीय जनसंघ ने न इस परियोजना को भुलाया, न शिक्षा विभाग पाने की अपनी दावेदारी को ही.

इन सरकारों में उसके मंत्री किस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एजेंडे के प्रति समर्पित होकर काम करते रहे, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि अंततः केंद्र की मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली जनता पार्टी सरकार की सांस इन मंत्रियों की संघ और जनता पार्टी की दोहरी सदस्यता के मुद्दे पर ही घुटी.

सुविदित है कि इसके बाद कैसे जनता पार्टी के कई टुकड़े हुए, उसका भारतीय जनसंघ घटक भारतीय जनता पार्टी के रूप में ‘अवतरित’ हुआ और गांधीवादी समाजवाद के घाट पर आत्महत्या करते-करते बचा.

1990 में बढ़े कदम

लेकिन 1990 के विधानसभा चुनावों में भाजपा मध्य प्रदेश, हिमाचल और राजस्थान में पहली बार अकेले अपने बूते पर सरकार बनाने में सफल रही तो उसे शिक्षा के भगवाकरण की परियोजना पर अमल की अपनी पुरानी मुराद पूरी करने का बड़ा मौका हाथ लग गया.

मार्च, 1990 में राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत, हिमाचल प्रदेश में शांता कुमार और मध्य प्रदेश में सुंदर लाल पटवा को मुख्यमंत्री बनाकर उसने अपने इस लक्ष्य के संधान की दिशा में कदम बढ़ाये. उसी दौर में इन राज्यों की स्कूली पाठ्य पुस्तकों में धार्मिक कट्टरता पैदा करने वाले पाठ रखे जाने शुरू हुए.

जानकारों के अनुसार उस वक्त मध्य प्रदेश में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़ी ‘विद्या भारती’ 1600 स्कूल संचालित करती थी और पटवा सरकार ने उसको आठवीं कक्षा तक अपना पाठ्यक्रम खुद तय करने व परीक्षा लेने का अधिकार दे दिया. इतना ही नहीं, प्रदेश के स्कूलों की चौथी कक्षा की पाठ्य पुस्तक से इंदिरा गांधी की ‘वानर सेना’ से जुड़ा पाठ हटा दिया गया और महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे के महिमामंडन की दिशा में कदम बढ़ाने शुरू कर दिए गए.

इसी दौरान राजस्थान के स्कूलों में पढ़ायी जाने वाली पुस्तक ‘संस्कार सौरभ’ के तीसरे भाग के ‘प्राण जाए पर वचन न जाए’ शीर्षक पाठ में अयोध्या में बहुचर्चित कारसेवा के दौरान मारे गए कोठारी बंधुओं की कथित बलिदानी गाथा पढ़ाई जाने लगी.

इसी प्रकार, कक्षा 6 में पढ़ायी जाने वाली ‘संस्कार सौरभ’ के ‘दो नवंबर के हुतात्मा’ शीर्षक पाठ में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को ‘क्रूर कसाई’ तक बता दिया गया. इसी पुस्तक के एक अन्य पाठ में सांप्रदायिक दंगों का वर्णन करते हुए उनका कारण मुसलमानों द्वारा गायों की हत्या को बताया गया.

जून, 1991 में उत्तर प्रदेश में कल्याण सिंह के नेतृत्व में भाजपा सरकार बनी तो उसने भी भगवाकरण की दिशा में बढ़ने के लिए स्कूली पाठ्यक्रम में कई परिवर्तन किए. इतिहास की पुस्तकों में पढ़ाया जाने लगा कि आर्य भारत के मूल निवासी थे और वे बाहर से नहीं आए.

इतना ही नहीं, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ. हेडगेवार की कथित भेंट (जानकारों के अनुसार जो वास्तव में कभी भेंट हुई ही नहीं) के बहाने यह बताने की कोशिश भी की जाने लगी कि डॉ. हेडगेवार राष्ट्रीय आंदोलन के प्रमुख स्तंभ थे. हाईस्कूल की एक पाठ्य पुस्तक में रामजन्मभूमि -बाबरी मस्जिद विवाद से संबन्धित विवादास्पद बातों को तथ्यों के रूप में पढ़ाया जाने लगा.

आगे चलकर मध्यप्रदेश और गुजरात जैसे राज्यों में, जहां भाजपा लगातार सत्ता में रही, भगवाकरण के उसके लगातार प्रयास सदाबहार हो गए. लेकिन उन्हें केंद्रीयता 2014 में केंद्र में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की अकेले अपने दम पर बहुमत वाली सरकार के दौरान मिली.

‘बेलो द बेल्ट’ हमले

इस सरकार ने किस तरह सत्ता में आते ही सबसे पहले विश्वविद्यालयों को निशाना बनाया और स्वतंत्र व खुले वातावरण और विचारों के आदान-प्रदान के माहौल को उनके परिसरों से बाहर का रास्ता दिखा दिया, आज की तारीख में एक खुला हुआ तथ्य है. यह भी कि अकादमिक शोध तथा उत्कृष्ट शिक्षा के केंद्र जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को ‘नियंत्रित’ करने के लिए कैसे उसने उस पर अनेक बेलो द बेल्ट हमले किए.

अनंतर, केंद्रीय व भाजपाशासित राज्यों के विश्वविद्यालयों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक सेवक संघ की विचारधारा के अनुयायी या समर्थक कुलपतियों की नियुक्ति की बहार ही ला दी गई, जिन्होंने अपने विश्वविद्यालयों में आरएसएस विरोधी या उसके लिए असुविधाजनक विचारों का पोषण करने वाला कोई भी सम्मेलन व सेमिनार आयोजित होना संभव नहीं रहने दिया.

इतना ही नहीं, संघ परिवार की कट्टरता के बरक्स विभिन्न धर्मो के बीच संवाद की जरूरत पर जोर देने वाले प्रोफेसरों पर नाहक एफआईआर तक दर्जकर उनको हतोत्साहित करने का सिलसिला भी शुरू कर दिया गया, जिससे विचारों के स्वतंत्र आदान-प्रदान का माहौल पूरी तरह खत्म होकर रह गया.

वामपंथी व दलित विचारधारा के छात्र, छात्रसंघ व बौद्धिक समुदाय इसके विरुद्ध खडे़ हुए तो उन्हें नये हमलों और साजिशों से जवाब दिया गया, जो इस बात का सबूत था कि उसके नियंत्रण वाले सत्ता प्रतिष्ठान के पास तर्क-वितर्क, विवेक और ज्ञान से उनकी काट करने की शक्ति एकदम से नहीं है.

दूसरी ओर विश्वविद्यालयों के परिसरों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखाएं लगाने तथा हिंदुत्ववादी कार्यक्रम करने की निरंकुश छूट ने कोढ़ में खाज की स्थिति बना दी है.

देश की प्राचीन संस्कृति व उसकी महानता के नाम पर पाठ्यक्रमों में ऐसी सामग्रियां जोड़ी जा रही हैं, जो नई पीढ़ी के मन-मस्तिष्क को कुंद कर उन्हें वैज्ञानिक दृष्टिकोण की प्रतिष्ठा की विपरीत दिशा में धकेल दें.

इस प्रवृत्ति का कोई सदुद्देश्य तो हो नहीं सकता और मंसूबा हो सकता है तो यही कि प्राचीन विरासत से परिचित कराने के नाम पर एक समूची पीढ़ी की वैज्ञानिक मनोवृत्ति को नष्ट कर उसे तर्क व विवेक का सहारा लेने में एकदम से अक्षम बना दिया जाए.

इसके बगैर वह हिंदुत्व की ऐसी सिपाही भला कैसे बनेगी कि सोवियत संघ के यूरी गागरिन के बजाय हनुमान को दुनिया का पहला अंतरिक्ष यात्री मानने लगे. साथ ही यह भी स्वीकार कर ले कि प्राचीन भारत ने शल्य चिकित्सा का ऐसा चरम उत्कर्ष देखा था, जिसमें आदमी के धड़ पर हाथी का सिर जोड़ दिया जाता था!

 

Source: The Wire