
मुझे याद है कि पहले आम बजट की चर्चा तीन-तीन महीने तक होती थी। बजट के हर पहलू, हर प्रावधान पर अख़बारों में लंबे-लंबे लेख लिखे जाते थे। आलोचना होती थी। प्रतिक्रियाएं मांगी जाती थीं। यहां तक कि मासिक और त्रैमासिक पत्रिकाएं भी बजट पर विशेष अंक निकालती थीं।
इसी तरह किसी भी घटना-दुर्घटना पर कई-कई दिन बात होती है। खोजी रिपोर्ट प्रकाशित होती थीं। जांच के हर पहलू का विश्लेषण किया जाता था। आदि…आदि।
लेकिन आज…आज हर ख़बर घंटे–दो घंटे में पुरानी हो जा रही है। बहुत बड़ी ख़बर हो तो भी वो उस शाम तक टेलीविज़न में और अगली सुबह अख़बारों की हेडलाइन बन पाती है। उसके बाद…उसके बाद कोई दूसरी ख़बर, दूसरा मुद्दा।
अगर आप आज बजट पर कोई लेख लिखना चाहें तो संपादक यही कहेंगे, ये मुद्दा पुराना हो गया है, कुछ नया लिखिए।
अगर आज आप प्रयागराज महाकुंभ या फिर दिल्ली रेलवे स्टेशन पर हुई भगदड़ और मौतों पर कोई वैचारिक या राजनीतिक आलेख लिखेंगे तो शायद ही कोई अख़बार या वेबसाइट उसे स्थान देगी।
हालांकि इसके पीछे एक बड़ा कारण मोदी सरकार का “बेहतरीन मीडिया मैनेजमेंट” तो है ही। क्योंकि आज भी वो जिस ख़बर को बड़े मुद्दे में बदलना चाहती है, वो उसे बदल देती है और सारे अख़बार-टेलीविज़न उस पर प्राइम टाइम बहस करते हैं।
उदाहरण के लिए पश्चिम बंगाल का आरजी कर अस्पताल का रेप और हत्याकांड देख सकते हैं। जिस पर कई-कई दिन, कई-कई रात प्राइम टाइम बहस हुईं। अख़बारों के पहले पेज की पहली लीड रही।
इसी तरह चाहे वो फ़िल्म अभिनेता सुशांत राजपूत का मुद्दा हो या अभी यू-ट्यूबर रणवीर इलाहाबादिया और समय रैना का मुद्दा। यह लगातार नेशनल न्यूज़ और राष्ट्रीय चिंता का विषय बनीं रहीं।
तो एक तो सरकार की मंशा और उसके गोदी या कॉरपोरेट मीडिया की वजह से देश के अहम मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं और ग़ैर ज़रूरी मुद्दे अहम मुद्दे बन जा रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ़ हमारे व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में भी ऐसे तमाम बदलाव हुए हैं या किए गए हैं कि हमारी याददाश्त बेहद कम होती जाती जा रही है। यानी हम Short Term Memory के शिकार हो रहे हैं और साथ ही संवेदनहीन भी। यानी अब हमें किसी भी बात से कुछ ज़्यादा फ़र्क़ नहीं पड़ता, जब तक वो बिल्कुल सीधे तौर पर हमसे न जुड़ी हो। और हमसे भी जुड़ी हो तब भी हम उसे पूरे व्यापक परिप्रेक्ष्य में समझने में असमर्थ होते जा रहे हैं।
हालांकि इसके पीछे भी उसी सूचना क्रांति और तकनीकी क्रांति की भूमिका है, जिसके चलते हम आज अपने को सबसे ज़्यादा मज़बूत समझते हैं। लेकिन इस पर भी सत्ता और पूंजी का नियंत्रण है।
इसे इस तरह समझा जा सकता है कि आज सूचना का तो विस्फोट है लेकिन सही जानकारी का अभाव है। मोबाइल फ़ोन के साथ एक नई ताक़त और तमाम सोशल प्लेटफार्म हमारे हाथ में हैं, लेकिन हम उस से जागरूक होने की बजाय मिसगाइड हो रहे हैं। फ़ेक न्यूज़ की चपेट में हैं।
अपनी भावनाएं और विचार व्यक्त करने का हमें एक बड़ा स्पेस तो मिला है, लेकिन हम वहां भी मानसिक तौर पर ग़ुलाम होते जा रहे हैं। और हमें पता भी नहीं चलता।
हमें लगता है कि सोशल मीडिया पर हम अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं लेकिन हम नहीं जानते कि हम वही विचार व्यक्त कर रहे हैं जो हमें एक पूरी रणनीति के तहत परोसे जा रहे हैं। हमारे दिमाग़ में फीड किए जा रहे हैं। वहां भी वही सत्ता और उसके साझीदार बड़ी पूंजी की Monopoly (एकाधिकार) काम कर रही है, जिसने हमारे परंपरागत मीडिया पर कब्ज़ा कर लिया है। वही आज प्रत्यक्ष और परोक्ष हमारी सोच को नियंत्रित कर रही है।
हमारा अच्छे से अच्छा कंटेंट भी उन्हीं पूंजीपतियों के हाथ में हैं जो सरकारों से हाथ मिलाए हुए हैं। वो चाहे X के एलन मस्क हों जो आज अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के साझेदार बने हैं या फिर फ़ेसबुक, इंस्टाग्राम के मार्क ज़ुकरबर्ग। ये किस तरह आपके कंटेंट और उसकी रीच (पहुंच) को नियंत्रित कर रहे हैं, सेंसर कर रहे हैं, यह हम सब देख ही रहे हैं। हमारी पसंद, हमारी रुचि के नाम पर भी हमें एक बाड़े, एक घेटो में क़ैद कर रहे हैं और हमें लगता है कि हम एक बड़ी दुनिया के साथ जुड़े हैं।
इसी तरह यू-ट्यूब का एल्गोरिदम किस तरह काम करेगा कोई नहीं जानता। किस अच्छे विचार को भी धीमा कर देगा या रोक देगा और किस बुरे कंटेंट को भी वायरल कर देगा, कुछ पता नहीं। इसी तरह वाट्सऐप किस तरह झूठी और भ्रामक ख़बरों का टूल बन गया है, हम आप अच्छे से जानते हैं।
एक दूसरे पहलू की ओर भी मैं आपका ध्यान दिलाना चाहूंगा। आपने शायद इस पर कभी सोचा हो। एक-डेढ़ मिनट की रील की इस दुनिया में हम किस क़दर जल्दबाज़ और संवेदनहीन होते जा रहे हैं।
हम फ़ेसबुक पर एक ही समय में एक मौत की पोस्ट पर आह, ओह, दुखद, नमन, श्रद्धांजलि लिखते हैं, और दूसरे ही पल जन्मदिन या शादी की दूसरी पोस्ट पर वाह, बधाई, शुभकामनाएं लिखते हैं।
एक मशीनी अंदाज़ में हम पोस्ट ऊपर से नीचे स्क्रॉल करते चले जाते हैं और एक ही वक़्त में कई मनोभाव प्रकट करते हैं। यानी हम एक भी पल रुक कर ठहर कर कुछ सोचने की स्थिति में नहीं हैं।
और अब तो हमने शब्दों में भी अपनी प्रतिक्रिया ज़ाहिर करनी कम कर दी है। आज का युवा अब शब्दों की बजाय इमोजी का प्रयोग कर रहा है। हंसी, ख़ुशी, ग़म, ग़ुस्सा हर मनोभाव के लिए एक इमोजी है और हमने अब अच्छी या बुरी चीज़ पर दो शब्द लिखने भी बंद कर दिए हैं। एक थम्सअप या ठहाके या आंसू का ईमोजी ही काफ़ी है।
कहने का आशय यह कि इस प्रैक्टिस के चलते धीरे-धीरे हमारा दिमाग़ कम प्रतिक्रिया देने लगा है, यानी हमारी किसी भी बात को महसूस करने की क्षमता कम होती जा रही है। यही वजह है कि हम महाकुंभ की दुर्घटना से भी बहुत प्रभावित नहीं होते और न रेलवे स्टेशन की भगदड़ से। न मणिपुर में क़रीब दो साल से चल रही हिंसा से।
जब अपने ही देश के किसान-मज़दूरों की आत्महत्या हमारे मिडिल क्लास के लिए कोई मुद्दा नहीं है तो समझिए कि फ़िलिस्तीन में इज़रायल के नरसंहार पर किसे सोचने का वक़्त है।
न हम अब किसी घटना या समस्या का सामाजिक कारण समझना चाहते हैं, न आर्थिक और राजनीतिक विश्लेषण करना चाहते हैं। एक बड़े वर्ग विशेष के लिए यह सब अब बेकार के बोरिंग विषय होते जा रहे हैं।
लेकिन यह भी बिल्कुल सच नहीं है कि हम हर घटना के प्रति उदासीन हो गए हैं या तुरत-फुरत भूल जा रहे हैं, क्योंकि यह दिलचस्प है कि इसी एक समय में हम इतिहास के गड़े मुर्दे उखाड़ कर उत्तेजित हो रहे हैं। सामूहिक उन्माद का शिकार हो रहे हैं। अपने मिथकों के माध्यम से मनमर्ज़ी का नया इतिहास गढ़ने की कोशिश कर रहे हैं। धर्म और जाति के नए आख्यान रच रहे है। ‘आस्था’ की डुबकी लगा रहे हैं। हर मस्जिद के नीचे मंदिर खोज रहे हैं। और बिल्कुल अपने आंखों के सामने हो रही घटनाओं से मुंह फेर ले रहे हैं।
एक तरफ़ हमें सैकड़ों मौतों से कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा और दूसरी तरफ़ हम एक हत्या या आत्महत्या पर भी इतने उद्वेलित हो रहे हैं कि सड़कों पर उतर आ रहे हैं। इसलिए हमें समझना होगा कि इस नए ज़माने में भी हम एक अलग ढंग के मानसिक ग़ुलाम या कठपुतली बनते जा रहे हैं। जिन्हें सत्ता और पूंजी का गठजोड़ अपने इशारे पर नचा रहा है। इस्तेमाल कर रहा है।
विश्व के स्तर पर इसकी एक पूरी आर्थिकी और राजनीति है, जिसका गहन विश्लेषण ज़रूरी है।
अर्थशास्त्रियों की नज़र में इस समय नव-उदारवाद एक बंद गली में फंस गया है। और बड़ी पूंजी ने फ़ासीवाद से नए सिरे से नए ढंग का गठबंधन कर लिया है। इसलिए मेरे लिए यह मनोविज्ञान से ज़्यादा आर्थिक और राजनीतिक विज्ञान और विश्लेषण का विषय है। इसे नए संदर्भों में समझ कर ही इससे मुक़ाबला किया जा सकता है। और शायद यही सही समय है…। हालांकि देश और दुनिया के स्तर पर इसको लेकर अभी कोई गंभीर तैयारी या समझदारी नज़र नहीं आ रही है।
उजाला जो दिखाया जा रहा है
हमारा घर जलाया जा रहा है
गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं
नया माज़ी बनाया जा रहा है
मेरा ही क़त्ल और क़ातिल को देखो
मेरे हक़ में बताया जा रहा है
Source: News Click