पिछले कई वर्षों से बक़रीद के नज़दीक आते ही हिंदुओं की तरफ़ से क़ुर्बानी के ख़िलाफ़ शोर बढ़ने लगता है. कई जगह क़ुर्बानी को मुश्किल बनाने के लिए राजकीय नियम कड़े कर किए जाते हैं. सार्वजनिक जगहों पर क़ुर्बानी की मनाही से लेकर दूसरी तरह की पाबंदियां लगाई जाती हैं.

 

बक़रीद के रोज़ चंडीगढ़ से एक मित्र ने उनके शहर से प्रकाशित होने वाले अख़बार में प्रकाशित एक लेख भेजा. नाम से मुसलमान नहीं जान पड़ते. इस्लाम के अध्येता और जानकार हैं. वे कहते हैं कि बक़रीद के मौक़े पर कुछ हिंदू पशु बलि पर पाबंदी की मांग कर रहे हैं. उन्होंने भी यह देखा है कि पूरी दुनिया में ऐसे अनेक मुसलमान हैं जो इस प्रथा के विरुद्ध हैं.

लेखक ने बताया है कि पाकिस्तान में भी ऐसे मुसलमान हैं जो शाकाहारी हैं और बक़रीद के रोज़ भी क़ुर्बानी नहीं देते. वे इस्लामियात की तालीम के लिए मशहूर अल अज़हर यूनिवर्सिटी की एक अध्यापिका को उद्धृत करते हैं कि किसी पवित्र अवसर को हिंसा और रक्त से दूषित नहीं किया जाना चाहिए. वे इस्लामी रहस्यवाद के एक प्रोफ़ेसर को याद करते हैं जो जलालुद्दीन रूमी को उद्धृत किया करते थे कि सारे प्राणी मेरे मित्र और भाई हैं सो मैं किसी पवित्र मौक़े पर अपने भाई को कैसे मार सकता हूं.

असल चीज़ है अपने अहंकार की बलि. अपने सबसे प्रिय का बलिदान. लेखक का कहना है कि यही बक़रीद का मूल संदेश है जिसे अनेक मुसलमानों ने अंगीकार किया है.

लब्बोलुआब यह कि इस दुनिया में ऐसे मुसलमानों की तादाद अच्छी ख़ासी है जो बक़रीद के मौक़े पर पशु बलि नहीं देते. इस तरह लेखक मुसलमानों को अहिंसक साबित करना चाहते हैं. वे लेख के आख़िर में कहते हैं कि हम दूसरों के बारे में सब कुछ नहीं जानते इसलिए हमारे मन में उनके लिए द्वेष और घृणा पनपती है.

द्वेष और घृणा का कारण यह है कि हिंदू मुसलमानों को स्वभावत: क्रूर मानते हैं. ऐसे हिंदुओं के अनुसार उस क्रूरता का एक प्रमाण है बक़रीद पर पशु बलि. स्पष्ट है कि लेखक का मक़सद है हिंदुओं को यह बताना कि उनकी धारणा ग़लत है क्योंकि वे ऐसे बहुत सारे मुसलमानों को और इस्लाम के आचार्यों को जानते हैं जो क़ुर्बानी को अनिवार्य नहीं मानते.

यह लेख बक़रीद के  दिन छापा जा रहा था, जिस रोज़ अमूमन मुसलमान क़ुर्बानी देते हैं. लेखक को मालूम है पिछले कई वर्षों से बक़रीद के नज़दीक आते ही हिंदुओं की तरफ़ से क़ुर्बानी के ख़िलाफ़ शोर बढ़ने लगता है. कई जगह क़ुर्बानी को मुश्किल बनाने के लिए राजकीय नियम कड़े कर किए जाते हैं. सार्वजनिक जगहों पर क़ुर्बानी की मनाही से लेकर दूसरी तरह की पाबंदियां लगाई जाती हैं. हम ऐसे मामले भी जानते हैं जिनमें इस वजह से मुसलमानों की गिरफ़्तारी हुई है या उन पर हमले हुए हैं.

अभी असली मसला यह है कि मुसलमानों को अपनी यह धार्मिक प्रथा निभाने का अधिकार है या नहीं? यह कौन तय करेगा कि उन्हें क़ुर्बानी का अधिकार है या नहीं?

लेखक इस संदर्भ से अपरिचित न होंगे. लेकिन वे इस पर कोई राय नहीं देते. बल्कि आलिमों और शायरों के हवाले से बताते हैं कि भले और अपने मज़हब के जानकार मुसलमान अपने पवित्र अवसर पर बलि को उचित नहीं मानते.

इससे क्या साबित होता है? जो मुसलमान बलि देते हैं, क्या वे आदर्श नहीं? क्या वे हिंसक हैं? क्या लेखक अपने ज्ञान और अनुभव से साबित कर रहे हैं कि बक़रीद में क़ुर्बानी लाज़िमी नहीं है और इसलिए मुसलमानों को इसकी ज़िद न करनी चाहिए?

हिंदुओं में अनेक समुदाय हैं जो अपने पवित्र अवसरों पर पशु बलि देते हैं. ऐसे मौक़े मात्र धार्मिक नहीं होते. जनेऊ, विवाह आदि अवसरों पर हमारे मैथिल ब्राह्मण समुदाय में बलि पड़ती है. जो लोग बलि देते है क्या हम उन्हें हिंसक कहते हैं? पशु हिंसा के विरुद्ध जो अभियान बक़रीद के अवसर पर चलाया जाता है, वह काली पूजा, दुर्गा पूजा और अन्य अवसरों पर नहीं चलाया जाता. क्या उन अवसरों पर हमारे अहिंसक जैन बंधु बकरे ख़रीदकर उनकी प्राण रक्षा करते हैं जैसा उनमें से कुछ बक़रीद के अवसर पर करते हैं?

जिस प्रकार बक़रीद के समय शाकाहार-मांसाहार पर बहस चलाई जाती है, हिंदू पर्व त्योहारों के मौक़ों पर नहीं. जाने कितनी ही जगहों पर, कितने मंदिरों में और कितनी देवियों की प्रतिमाओं के सामने रोज़ाना हज़ारों बलियां होती हैं. लेकिन हम बलि प्रथा पर बहस नहीं देखते. वैसे अच्छे, भले हिंदुओं की प्रशंसा में लेख नहीं लिखे जाते जो शाकाहारी होते हैं और इस वजह से अहिंसक होते हैं.

स्पष्ट है कि मसला हिंसा-अहिंसा का नहीं है बल्कि बक़रीद के अवसर पर मुसलमानों को अपमानित करने का है.

शायद यह तुलनात्मक तरीक़ा ठीक नहीं. जैन समुदाय किसी अवसर पर बलि नहीं देता. तो क्या हम जैनों के मुक़ाबले मुसलमानों या हिंदुओं को हीन मानें? क्या अगर जैन बहुसंख्या में हों तो उन्हें हिंदुओं से बलि का अधिकार ले लेना चाहिए या बलि के बहाने हिंदुओं का अपमान करना चाहिए?

उससे बड़ा सवाल यह है कि आज भारत में जब मुसलमानों के धार्मिक रिवाजों पर तरह तरह की पाबंदियां लगाई जा रही हो तो क्या हमें उन पाबंदियों को नज़रअंदाज़ करना चाहिए और शाकाहार बनाम मांसाहार की बहस शुरू कर देनी चाहिए? या इस मौक़े पर हमें उनके अपने तरीक़े से धार्मिक रिवाज निभाने के अधिकार के लिए आवाज़ उठानी चाहिए?

क़ुर्बानी के सवाल को यहीं रहने देते हैं. इसे एक दूसरे तरीक़े से समझने की कोशिश करते हैं.

जब बाबरी मस्जिद को ध्वस्त कर दिया गया और यह बहस शुरू हुई कि क्या फिर से मस्जिद बननी चाहिए या नहीं तो हमारे कई मित्रों ने कहना शुरू किया कि वहां मस्जिद या मंदिर की जगह हस्पताल बना देना चाहिए. अनेक नास्तिक मित्रों ने धर्मों की न्यूनता और उनके ऋणात्मक पक्षों की चर्चा की और कहा कि उस जगह कॉलेज जैसी चीज़ बना देनी चाहिए जिससे समाज को वास्तविक लाभ हो.

यह एक बहुत विचित्र समाधान था. मुसलमानों के धार्मिक स्थल को ध्वस्त कर दिया गया था. यह उनके अधिकार का उल्लंघन था. हम उस अपराध का परिमार्जन एक ‘धर्मनिरपेक्ष’ विकल्प के ज़रिये करना चाहते हैं. क्या हम मुसलमानों से यह कहना कहते थे कि इबादत का उनका अधिकार महत्त्वपूर्ण नहीं और उन्हें ‘धर्मनिरपेक्ष’ तरीक़े से जीवन जीना चाहिए? क्या जब मेरे एक अधिकार का उल्लंघन हो रहा हो, आप उस पर ध्यान देने की जगह मुझे जीवन जीने का एक बेहतर रास्ता सुझाने लगेंगे?

इस तरह का बौद्धिक भ्रम हमें दूसरे मौक़ों पर भी होता है. मसलन, मुसलमानों के सार्वजनिक स्थलों पर पर नमाज़ पढ़ने पर अब भारत में कई जगह पाबंदी है. क्या हम इसे ट्रैफिक को सुगम बनाने के नाम पर जायज़ ठहराएंगे? क्या मुसलमानों को धर्म को निजी स्थल तक सीमित रखने का मशविरा देंगे?

2002 में गुजरात की हिंसा के दौरान अहमदाबाद में शायर वली दकनी के मज़ार को ध्वस्त कर दिया गया. वह बीच सड़क पर था. अहमदाबाद में लेखकों की एक सभा में उसके पुनर्निर्माण का प्रस्ताव लाया गया. कुछ तर्कवादी लेखकों ने उसका विरोध यह कह-कहकर किया कि उससे ट्रैफिक में बाधा होती है. लेकिन क्या मज़ार को ट्रैफिक सुगम करने के लिए तोड़ा गया था? मज़ार पुनर्निर्माण के ख़िलाफ़ इस तर्क के पीछे कहीं यह कारण तो नहीं था कि अब हम वह कर ही नहीं सकते थे और ख़ुद अपनी असमर्थता के लिए एक तर्कपूर्ण बहाना खोज रहे थे ?

बक़रीद के वक्त शाकाहारी, भले और अहिंसक मुसलमानों की चर्चा के तर्क को दूसरी जगह भी लागू किया जा सकता है. मवेशियों का व्यापार करने के कारण जब मुसलमानों को मारा जा रहा हो, क्या हम वैसे मुसलमानों की फ़ेहरिस्त तैयारी करेंगे जो ‘अहिंसक’ व्यापार करते हैं?

अगर हम वास्तव में हिंसा के विरोधी और आलोचक है तो बक़रीद जैसे मौक़े पर मुसलमानों को बलि देने से रोकने की हिंसा के ख़िलाफ़ हमें बोलना होगा. उसके लिए गांधी जैसी स्पष्टता चाहिए. 1947 में आज़ादी के बाद उनसे कहा गया कि भारत में गो हत्या पर प्रतिबंध लगाने वाला क़ानून लाना चाहिए. गांधी ख़ुद को गो सेवक कहते थे. लेकिन उन्होंने इस मांग को अस्वीकार कर दिया. उन्होंने साफ़-साफ़ कहा कि भारत में ऐसे लोग हैं जो गाय का मांस खाते हैं. वे उनका अधिकार छीन नहीं सकते.

असल सवाल अधिकार की समझ का है. जब मेरे किसी अधिकार का हनन हो रहा हो तो मैं आपसे उसके पक्ष में खड़े होने की उम्मीद करता हूं. जो अधिकार का उल्लंघन कर रहा है उसे भी यही अहसास कराया जाना चाहिए कि वह किसी के अधिकार का उल्लंघन कर अपराध कर रहा है.

 

Source: The Wire