
1975 का आपातकाल इतिहास में स्याह अध्याय के रूप में दर्ज है. लेकिन आज का अघोषित आपातकाल और भी अधिक गंभीर है, क्योंकि यह लोकतंत्र का चोला पहन कर उसका गला घोंटता है. चुनाव अब केवल वोट डालने की प्रक्रिया तक सीमित हो गए हैं, और यह प्रक्रिया भी कई स्तरों पर कलुषित है.
1975 में भारत ने अपने लोकतंत्र के इतिहास का सबसे अंधकारमय दौर देखा था. 25 जून, 1975 को तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपातकाल की घोषणा कर दी — नागरिक स्वतंत्रताएं निलंबित कर दी गईं, प्रेस पर सेंसरशिप थोप दी गई, राजनीतिक विरोधियों को जेल में डाला गया, और संविधान में मनमाने बदलाव किए गए. लेकिन कम से कम वह सब कुछ एक आधिकारिक घोषणा के साथ हुआ था.
अब ज़रा ठहरकर हम आज के सन्दर्भ को देखें.
भले ही आज आपातकाल की कोई औपचारिक घोषणा नहीं हुई है, लेकिन इसके लक्षण और परिणाम बेहद मिलते-जुलते हैं. कई मामलों में यह दौर उससे भी अधिक ख़तरनाक प्रतीत होता है. 1975 में सेंसरशिप खुले तौर पर लागू की गई थी. संपादकों को सरकारी आदेश मिलते थे, और अखबार विरोध प्रकट करने के लिए खाली कॉलम छापते थे. आज वैसा कोई आदेश नहीं है, लेकिन भय और दबाव पहले से अधिक गहरा है. पत्रकार स्व-सेंसरशिप करने को मजबूर हैं. सरकार की आलोचना करने वाले मीडिया संस्थानों पर प्रवर्तन निदेशालय की छापेमारी, सरकारी विज्ञापनों की कटौती या कानूनी दबाव बनाना आम बात हो गई है. यह एक ‘अघोषित सेंसरशिप’ है — चुप्पी की साजिश.
1975 में लोकतांत्रिक संस्थाएं सत्ता के अधीन हो गई थीं, लेकिन आज वे कहीं भीषण रूप में सत्ता की पैरोकार बन गयी हैं. ईडी, सीबीआई, एनआईए जैसी एजेंसियां कानून की रक्षक के बजाय सरकार की आलोचना करने वालों को डराने और चुप कराने का माध्यम बन गई हैं. विपक्षी नेताओं से लेकर छात्रों, किसानों, लेखकों, और कलाकारों तक — सभी राज्य के निशाने पर हैं.
संविधान बना सत्ता का हथियार
आज सत्ता प्रतिष्ठान को संविधान की धाराओं को निलंबित करने की जरूरत नहीं है. आज सत्ता संविधान के प्रावधानों को आराम से हथियार की तरह इस्तेमाल कर सकती है. यूएपीए, देशद्रोह और आतंकवाद से जुड़े कानूनों का प्रयोग कर सरकार अपने आलोचकों को जेल में डाल सकती है — वह भी बिना मुकदमा चलाए, बिना सुनवाई के. यह नया आपातकाल कानून और लोकतंत्र की नयी व्याख्या के आड़ में छिपा है.
1975 में सरकार ने मीडिया यानी अखबारों पर सीधा नियंत्रण किया था. आज यह नियंत्रण मीडिया संस्थानों की खरीद-फरोख्त, कॉरपोरेट गठजोड़, और सोशल मीडिया की रणनीति से होता है. संवाद की जगह शोर ने ले ली है, बहस की जगह नफ़रत और ट्रोलिंग ने.
1975 की इमरजेंसी का सबसे विकृत चेहरा न्यायपालिका के आत्मसमर्पण में दिखाई देता था. आज अदालतें आधिकारिक तौर पर खामोश नहीं हैं, लेकिन मौलिक अधिकारों के हनन पर उनकी निष्क्रियता और सुनवाई में देरी चिंता का विषय है.
देश पर हावी सरकार
सरकार और देश के बीच का एक बड़ा फर्क जो लोकतंत्र को ऊर्जा प्रदान करता है, उसे बिलकुल ख़त्म कर दिया गया है. सरकार चलाने वाले व्यक्ति को देश का पर्याय घोषित कर दिया गया है और इसे साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी जा रही है. उस व्यक्ति-विशेष की कार्य-शैली की आलोचना को भी देश की आलोचना बताया जा रहा है. आलोचक ‘देशद्रोही’ करार दिए जा रहे हैं.
1975 की इमरजेंसी अधिनायकवाद की प्रतिध्वनि थी. आज का दौर बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद से रंगा हुआ अधिनायकवाद है जो धार्मिक ध्रुवीकरण के ज़रिए समाज को बांटने और विरोध की आवाज़ को ‘देशद्रोह’ बता कर खारिज करने की रणनीति को सरकारी नीति बनाकर काम कर रहा है. यह स्थिति लोकतंत्र के लिए और अधिक ख़तरनाक है.
आपातकाल तब ज़्यादा ख़तरनाक होता है जब वह खुद को आपातकाल कहता ही नहीं. जब चुनाव होते हैं, संसद चलती है, नारे लगते हैं, और एक भ्रम-सा पैदा होता है कि लोकतंत्र ज़िंदा है. लेकिन इस ‘जिंदा होने’ की असलियत यह है कि एक राष्ट्र के रूप में हमें जिन मूल्यों पर नाज़ था, आज वे सब एक-एक करके नेस्तनाबूद किये जा रहे हैं.
हमें बिसराना नहीं चाहिए कि भारत एक ऐसा देश है जिसकी पहचान उसकी लोकतांत्रिक विविधता, बहुलता और संवैधानिक मूल्यों से होती है. लेकिन बीते एक दशक में सरकार लोकतंत्र की उस मूल आत्मा को नष्ट कर रही है, जिस पर स्वतंत्र भारत की नींव रखी गई थी. क्या ये बिलकुल साफ़ नहीं दिखता कि सरकार की नीतियां और शीर्ष नेताओं के भाषण अकसर अल्पसंख्यकों, विशेषकर मुसलमानों, के खिलाफ ध्रुवीकरण पैदा करते हैं. हाशिये के समूहों, खासकर दलितों-पिछड़ों को दोयम दर्जे के मानदंड से तौला जाता है. सीएए-एनआरसी, लव जिहाद कानून, मस्जिदों को लेकर विवाद और बुलडोजर राजनीति — यह सब एक खास विचारधारा को बढ़ावा देते हैं, जो संविधान के समता-मूलक और धर्मनिरपेक्ष स्वरूप के खिलाफ है.
1975 का आपातकाल इतिहास में स्याह अध्याय के रूप में दर्ज है. लेकिन आज का अघोषित आपातकाल और भी अधिक गंभीर है, क्योंकि यह लोकतंत्र का चोला पहन कर उसका गला घोंटता है. चुनाव अब केवल वोट डालने की प्रक्रिया तक सीमित हो गए हैं, और यह प्रक्रिया भी कई प्रकार से कलुषित है. यह इसकी सबसे बड़ी त्रासदी है.
आज जब हम घोषित आपातकाल के पचास वर्ष पूर्ण होने पर उस दौर को स्मरण कर रहे हैं तो हमें आज़ाद भारतवर्ष के जन्म से पूर्व के उस संकल्प को फिर से दोहराना होगा कि हम लोकतंत्र और आज़ादी की रक्षा करेंगे — चाहे इसकी कोई भी क़ीमत क्यों न चुकानी पड़े. ये संकल्प महज एक भावना नहीं बल्कि एक साझा प्रतिज्ञा है एक प्रतिबद्ध समाज की.
सच कहा जाए तो यह एक चेतावनी भी है, और एक आह्वान भी क्योंकि लोकतंत्र कोई सौगात नहीं है जो सत्ता-प्रतिष्ठान हमें भेंट करता है, बल्कि एक अधिकार है जिसे संघर्ष, बलिदान और अदम्य साहस से अर्जित किया गया है और जिसे निरंतर और लगातार सजग नागरिकों की ज़रूरत होती है.
इतिहास गवाह है — जब भी तानाशाही ने अपनी जड़ें ज़माने की कोशिश की तो कभी चोला विकास का रहा या कभी राष्ट्रवाद का और कभी कभी धर्म का आवरण. लेकिन हम यह भलीभांति जानते हैं—जहां सवाल पूछना अपराध बन जाए, जहां असहमति को गुनाह समझा जाए, और जहां सत्य बोलने पर जेल मिले—वहां लोकतंत्र खतरे में है.
हमें याद रखना होगा कि आज़ादी नाज़ुक होती है. और अन्याय के सामने चुप्पी अपने आप में अन्याय है. हम भाषा, जाति, विचारधारा में भले अलग हों, लेकिन हमें जो जोड़े हुए है, वह है—हमारा संविधान, हमारा गणतंत्र, और हमारी आज़ादी से प्रेम.
25 जून, 1975 के लोकतंत्र के उस काले अध्याय को स्मरण करते हुए हमें वर्तमान लोकतंत्र पर छाये काले बादलों से जूझना होगा और प्रण लेना होगा कि हमारा नाम उन लोगों में लिखा जाए जो हर अन्याय के सामने डटकर खड़े रहे.
Source: The Wire