भारतीय राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) का कहना है कि दवा निर्माताओं ने कुछ कारणों का हवाला देते हुए दामों में संशोधन की मांग की थी, जिसके चलते उसने व्यापक जनहित में दवाइयों की क़ीमतें बढ़ाई हैं.
नई दिल्ली: भारतीय राष्ट्रीय औषधि मूल्य निर्धारण प्राधिकरण (एनपीपीए) ने ‘असाधारण परिस्थितियों’ और ‘जनहित’ का हवाला देते हुए सोमवार (14 अक्टूबर) को आठ दवाओं की अधिकतम कीमतें बढ़ा दी हैं.
मालूम हो कि एनपीपीए केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय के तहत फार्मास्यूटिकल्स विभाग के अंतर्गत आता है. एनपीपीए का गठन 1997 में दवाओं की अधिकतम कीमतों का निर्धारण करने के लिए किया गया था. इसके पास आवश्यक वस्तु अधिनियम के तहत सरकार द्वारा जारी ‘ड्रग प्राइस कंट्रोल ऑर्डर’ (डीपीसीओ) के अंतर्गत दवा की लागत तय करने का अधिकार है.
एनपीपीए ‘अनुसूचित दवाओं’ (scheduled drugs) की अधिकतम कीमतें तय करता है, जो भारत की आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची के अंतर्गत आती हैं. वर्तमान में इसमें 350 से अधिक दवाओं के 960 फॉर्मूलेशन शामिल हैं.
बता दें कि एक दवा में एक से अधिक फॉर्मूलेशन हो सकते हैं. इन दवाओं को एनपीपीए द्वारा तय की गई कीमत से अधिक पर नहीं बेचा जा सकता.
सोमवार को जिन दवाओं की कीमतें बढ़ाई गई हैं, उनमें साल्बुटामोल (अस्थमा), इंजेक्शन के लिए स्ट्रेप्टोमाइसिन पाउडर (टीबी), लिथियम (बाइपोलर डिऑर्डर के लिए), और पिलोकार्पिन आई ड्रॉप (ग्लूकोमा के लिए) जैसी दवाएं शामिल हैं. इनकी कीमतों में मौजूदा सीमा से 50 फीसदी की बढ़ोतरी की गई है.
एनपीपीए नियमित अभ्यास के तौर पर बीते साल के थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) के आधार पर 1 अप्रैल से शुरू होने वाले प्रत्येक वित्त वर्ष में अधिकतम कीमतें बढ़ाता है. उदाहरण के लिए, एनपीपीए ने डब्ल्यूपीआई को ध्यान में रखते हुए, 1 अप्रैल 2024 या उसके बाद बेची जाने वाली दवाओं के लिए 0.00551% की कीमत में बढ़ोतरी की अनुमति दी.
लेकिन 14 अक्टूबर को एनपीपीए ने 50% बढ़ोतरी के लिए ‘असाधारण’ परिस्थितियों का हवाला दिया.
ज्ञात हो कि डीपीसीओ की धारा 19 सरकार को वार्षिक नियमित अभ्यास के अलावा अधिकतम लागत को ऊपर या नीचे संशोधित करने की शक्ति देती है. असाधारण परिस्थितियों में ऐसा किया जा सकता है.
डीपीसीओ की धारा 19 में कहा गया है, ‘इस आदेश में निहित किसी भी बात के बावजूद, सरकार, असाधारण परिस्थितियों के मामले में, यदि जनहित में ऐसा करना आवश्यक समझती है, तो किसी भी दवा की अधिकतम कीमत या खुदरा मूल्य ऐसी अवधि के लिए तय कर सकती है, जैसा वह उचित समझे और जहां भी हो दवा की अधिकतम कीमत या खुदरा कीमत पहले से ही तय और अधिसूचित है, सरकार उस वर्ष के वार्षिक थोक मूल्य सूचकांक के बावजूद, जैसा भी मामला हो, अधिकतम कीमत या खुदरा कीमत में वृद्धि या कमी की अनुमति दे सकती है.’
सरकार का तर्क
एनपीपीए ने कहा है कि उसने व्यापक जनहित में कीमतें बढ़ाई हैं. इसमें कहा गया है कि दवा निर्माताओं ने कुछ कारणों, जैसे ‘सक्रिय दवा सामग्री यानी दवा बनाने के लिए आवश्यक सामग्री की लागत में वृद्धि, उत्पादन की लागत, विनिमय दर (exchange rate) में बदलाव आदि’ का हवाला देते हुए कीमतों में संशोधन की मांग की थी.
एनपीपीए ने दावा किया कि इन कारकों के चलते दवाओं के उत्पादन में मुश्किल पैदा हो गई है और इसके चलते कुछ दवा निर्माताओं ने कुछ फॉर्मूलेशन को बंद करने के लिए भी आवेदन किया है.
एनपीपीए ने इस बारे में और कोई जानकारी नहीं दी है.
इस संबंध में एसोसिएशन ऑफ डॉक्टर्स फॉर एथिकल हेल्थकेयर (एडीईएच) के सदस्य और पंजाब मेडिकल काउंसिल के पूर्व अध्यक्ष डॉ. गुरिंदर एस. ग्रेवाल ने कहा कि सरकार के तर्क में कई महत्वपूर्ण बातें नहीं हैं.
डॉक्टर ग्रेवाल ने सवाल किया कि इनमें से किस दवा के लिए, व्यक्तिगत आधार पर, उत्पादन लागत बढ़ी है और कितनी? प्रत्येक दवा के लिए उत्पादन की लागत बढ़ने के कारक क्या हैं?
डॉ. ग्रेवाल ने आगे कहा कि इन विवरणों को साफ़ किए बिना सरकार द्वारा दिया गया तर्क अस्पष्ट नजर आता है.
उन्होंने ये भी जोड़ा कि ये ‘गरीब लोगों की दवाएं’ थीं, जिन्हें सामान्य बीमारियों में और अक्सर पुरानी बीमारियों के लिए लंबे समय तक लिया जाता है.
गौरतलबा है कि सरकार की अपनी रिपोर्ट और सर्वेक्षण कहते हैं कि दवाओं पर होने वाला खर्च स्वास्थ्य सेवाओं पर होने वाले खर्च में बढ़ोतरी का प्रमुख कारक है.
लगातार बढ़ता खर्च
पिछले महीने सरकार द्वारा जारी नवीनतम नेशनल हेल्थ अकाउंट्स रिपोर्ट में कहा गया कि वर्तमान स्वास्थ्य देखभाल व्यय में से लगभग एक तिहाई (30.84%) ‘फार्मास्युटिकल व्यय’ के रूप में खर्च किया जाता है. इसमें प्रिस्क्राइब्ड दवाएं, ओवर-द-काउंटर दवाएं, आंतरिक रोगी या बाह्य रोगी देखभाल के दौरान दी जाने वाली दवाएं, या किसी अन्य तरीके से स्वास्थ्य सेवाएं प्राप्त करना शामिल है.
असल में इस रिपोर्ट में सूचीबद्ध 17 स्वास्थ्य देखभाल से जुड़ी कवायद, जिसमें अस्पताल में प्रवेश या ओपीडी देखभाल पर खर्च शामिल है, में से दवाओं (प्रिसक्राइब और ओवर-द-काउंटर) पर किया जाने वाला खर्चा दूसरे नंबर पर था. दवाओं से अधिक खर्च इन-पेशेंट देखभाल पर होता है.
इसके अलावा, सामुदायिक चिकित्सक और पब्लिक हेल्थ रिसर्चर डॉ. पार्थ शर्मा ने अनुसूचित दवाओं की सूची में एक विशेष फॉर्मूलेशन को शामिल करने पर सवाल उठाते हुए कहा कि ये फॉर्मुलेशन जिस बीमारी के खिलाफ काम करता है, उसके इलाज में इसकी उपयोगिता घट रही है.
उन्होंने कहा, ‘सभी मौजूदा दिशानिर्देशों के अनुसार, साल्बुटामोल (अस्थमा के रोगियों द्वारा को दी जाने वाली दवा) का टैबलेट नहीं दिया जाना चाहिए, क्योंकि यह धीमी गति से काम करता है और कुछ दुष्प्रभावों से जुड़ा है.’
डॉक्टर शर्मा ने आगे कहा, ‘इनहेलर्स, जो साल्बुटामोल के टैबलेट फॉर्म के बजाय बेहतर काम करने के लिए जाने जाते हैं, ज्यादातर सरकारी अस्पतालों में स्टॉक से बाहर हैं और निजी फार्मेसियों में इसकी कीमत 300-400 रुपये है, जो उन्हें गरीब लोगों के लिए पहुंच से बाहर कर देती है.’
Source: The Wire