भारतीय अर्थव्यवस्था के सामने मौजूद गंभीर समस्याओं पर ध्यान देने के बजाय, लगता है केंद्रीय बजट 2024-25 का उद्देश्य, अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों और संगठित क्षेत्र को खुश रखना है।

कॉरपोरेट सेक्टर और पिंक पेपर्स ने केंद्रीय बजट 2024-25 का बड़े पैमाने पर स्वागत किया है। कोई हमेशा और अधिक पाने या चाहने की कामना कर सकता है, लेकिन अगर कोई नुकसान नहीं होता है और कोई ठहराव नहीं होता है तो यह राहत की बात होगी।

उम्मीद यह की गई थी कि हाल ही में हुए चुनाव नतीजों के बाद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की अगुआई वाली सरकार बजट में ऐसे उपाय पेश करेगी जिससे वह आबादी के असंतुष्ट तबके को अपने पाले में वापस ला पाए। इसके लिए बजट का जनता के पक्ष में होना ज़रूरी था- और हमेशा इस किस्म के बजट को भारतीय कॉरपोरेट सेक्टर व्यापार विरोधी बजट के रूप में पेश करता है।

उन राज्यों के लिए भी बड़े पैकेज की उम्मीद की गई थी जहां से सरकार में सत्तारूढ़ पार्टी को समर्थन देने वाले दो प्रमुख गठबंधन सहयोगी आते हैं, अर्थात आंध्र प्रदेश और बिहार।

कॉरपोरेट सेक्टर को डर था कि उक्त करने के लिए अतिरिक्त टैक्स की आवश्यकता होगी, जिससे उनका मुनाफ़ा कम हो जाएगा। मध्यम वर्ग से कोई अतिरिक्त टैक्स नहीं जुटाया जा सका, क्योंकि मांग बढ़ाने और उन्हें सत्तारूढ़ पार्टी के पाले में लाने के लिए उनके करों में कटौती की बात चल रही थी।

संक्षेप में, अतिरिक्त राजस्व संगठित क्षेत्र से मिलने की उम्मीद थी, जो वैसे भी अधिकांश करों का भुगतान करता है और सरकार को गैर-कर संसाधन उपलब्ध कराता है।

इसके अलावा, महामारी के बाद संगठित क्षेत्र में वृद्धि हुई है, जैसा कि सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के आंकड़ों से पता चलता है, इसलिए अर्थव्यवस्था में इसकी आय का हिस्सा बढ़ गया है और यह अधिक करों का भुगतान करने में सक्षम है।

छिपे हुए इरादे

इन सब बातों को देखते हुए, चुनाव के बाद का बजट चुनाव-पूर्व बजट से अलग होने की उम्मीद थी। 1 फरवरी, 2024 को पेश किए जाने वाले अंतरिम बजट का इस्तेमाल प्राथमिकताओं में आए बदलावों का आकलन करने के लिए किया जा सकता है।

नई प्राथमिकताओं को समायोजित करने के लिए, यदि कोई प्राथमिकता हो भी तो बजट का समग्र आकार बहुत बड़ा होना चाहिए था। 47.66 लाख करोड़ से 48.20 लाख करोड़ तक की वृद्धि का मतलब केवल 1 प्रतिशत की वृद्धि है – यह शायद ही कोई बदलाव कहलाएगा।

मान लीजिए कि ऐसा इसलिए किया गया ताकि वित्तीय घाटा न बढ़े। उस स्थिति में, फिर से पुनः प्राथमिकताओं को तय करने की जरूरत थी – प्राथमिकता वाले क्षेत्रों के लिए आवंटन में पर्याप्त वृद्धि और अन्य व्यय में कटौती करनी थी। लेकिन ऐसा शायद ही देखने को मिले।

इस बदलाव की कमी को बड़े बदलावों का दिखावा करके छिपाया जाना था। इसके लिए एक मानक तकनीक यह है कि पांच साल के व्यय लक्ष्य की घोषणा की जाए जबकि मौजूदा बजट में बहुत कम आवंटन किया जाए। उदाहरण के लिए, बहुत धूमधाम से यह घोषणा की गई है कि 500 सबसे बड़ी कंपनियां एक करोड़ युवाओं को इंटर्नशिप प्रदान करेंगी।

सुनने में तो बहुत बढ़िया लग रहा है। लेकिन पांच साल से भी ज़्यादा हो गए हैं। इसके अलावा, चूंकि इस योजना को अभी तक पूरी तरह से लागू नहीं किया गया है, इसलिए मौजूदा बजट से शायद ही किसी फंड की ज़रूरत होगी। इसलिए, 10,000 करोड़ रुपये के आवंटन की बिना पर रोज़गार पर काफ़ी चर्चा हुई है।

दूसरी तकनीक ऐसी योजनाओं की घोषणा करना है जिनके लिए बजट में कोई धनराशि नहीं दी जाती है। इन्हें वित्तीय एजेंसियों से ऋण लेकर वित्तपोषित किया जाता है। इसका एक महत्वपूर्ण उदाहरण आंध्र प्रदेश की अमरावती राजधानी परियोजना के लिए घोषित 15,000 करोड़ रुपए की घोषणा है।

यह केंद्र सरकार द्वारा सुविधा प्रदान की गई बहुपक्षीय एजेंसियों से ऋण लेना जैसा होगा। इसलिए बजट में कुछ भी आवंटित करने की जरूरत नहीं है। इसी तरह, बिहार और आंध्र प्रदेश में बुनियादी ढांचे के निर्माण के लिए बड़ी घोषणाओं के लिए अब ज्यादा धन की जरूरत नहीं है।

उनके लिए काम शुरू करने के लिए योजनाएं बनानी होंगी और उन्हें पूरा होने में सालों लग सकते हैं। इसलिए, बाद में धन आवंटित करना पड़ सकता है। दरअसल, बताई गई कुछ योजनाएं पहले की हैं जो सुस्त पड़ी थीं और वे आगे भी सुस्त ही रहेंगी।

नतीजतन, इन दो पसंदीदा राज्यों को आवंटन मौजूदा बजट में ‘राज्यों को हस्तांतरण’ मद में किसी भी तेज वृद्धि में शायद ही परिलक्षित होता है। 2022-23 में, इस मद में 2,73,393 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे।

2023-24 में इसे बढ़ाकर 3,24,641 करोड़ रुपए कर दिया गया था। लेकिन खर्च 2,73,985 करोड़ रहा। पिछले साल के लगभग बराबर, यानी मुद्रास्फीति के हिसाब से यह वास्तविक रूप से 5 से 6 प्रतिशत कम था। 2024-25 में इसे 3,22,787 करोड़ रुपए कर दिया गया है – जो 2023-24 में आवंटित राशि से भी कम है।

यह गलतियों की त्रासदी है। अन्य राज्य अनावश्यक रूप से भेदभाव महसूस कर रहे हैं और उन्हें लगता है कि फेडरलिज़्म को खत्म किया जा रहा है, जबकि बिहार और आंध्र प्रदेश को बजट से सीधे तौर पर बहुत कम मिलेगा। यह भी आश्चर्यजनक है कि इन दोनों राज्यों में सत्तारूढ़ दलों को लगता है कि उन्हें सत्तारूढ़ पार्टी का समर्थन करने का फल मिला है।

केंद्रीय वित्त मंत्री भी अपने इन बड़े-बड़े दावों को सही ठहराने के लिए निम्नलिखित तीन तकनीकों का इस्तेमाल करती हैं:

  1. महंगाई को कवर करने के लिए प्रमुख मदों पर व्यय बढ़ाया गया है। 2023-24 में ‘कृषि और संबद्ध गतिविधियों’ की मद में व्यय 1,40,533 करोड़ रुपए था, जबकि इसके लिए 1,44,214 करोड़ रुपए आवंटित किए गए थे। अब इस मद में 1,51,851 करोड़ रुपए आवंटित किए गए हैं। यह पहले के व्यय से 8 प्रतिशत अधिक है, लेकिन आवंटन से 5.2 प्रतिशत अधिक है, जो महंगाई को कवर करता है।
  2. कई मामलों में, मुद्रास्फीति के लिए समायोजित आवंटन में कमी आई है। जैसा कि ऊपर चर्चा किए गए ‘राज्यों को हस्तांतरण’ के मामले में है। यही स्थिति ‘पूर्वोत्तर के विकास’ के मामले में भी है। महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MGNREGS) को 86,000 करोड़ आवंटित किए गए हैं, जो पिछले साल आवंटित किए गए थे, जो वास्तविक रूप से 5 प्रतिशत कम है।
  3. कुछ महत्वपूर्ण क्षेत्रों में, धन आवंटित किया जाता है लेकिन खर्च आंशिक रूप से किया जाता है। अगले वर्ष आवंटन को बढ़ाया जाता है ताकि खर्च की गई राशि से अधिक वृद्धि दिखाई जा सके। स्वास्थ्य का मामला लें। 2022-23 में, 73,551 करोड़ रुपए खर्च किए गए। 2023-24 में, आवंटन 88,956 करोड़ था लेकिन खर्च 79,221 करोड़ रुपए था। 2024-25 में आवंटन 89,287 करोड़ रुपए है। इसलिए, यह खर्च की तुलना में 12 प्रतिशत की वृद्धि लगती है, लेकिन आवंटन की तुलना में, यह 0.3 प्रतिशत की वृद्धि है।

‘प्रमुख योजनाओं पर परिव्यय’ के अंतर्गत योजनाओं के विश्लेषण से पता चलता है कि ये तीन मुद्दे सरकार की अधिकांश प्रमुख योजनाओं के मामले में बार-बार सामने आते हैं।

सूची इस प्रकार है:

राष्ट्रीय आयुष मिशन, समग्र शिक्षा, प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण, आयुष्मान भारत-प्रधानमंत्री जन आरोग्य योजना (पीएमजेएवाई), अटल कायाकल्प और शहरी परिवर्तन मिशन (अमृत), स्मार्ट सिटी मिशन, स्वच्छ भारत मिशन (एसबीएम) (शहरी), जल जीवन मिशन (जेजेएम) या राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल मिशन, स्वच्छ भारत मिशन (ग्रामीण), राष्ट्रीय सामाजिक सहायता कार्यक्रम, प्रधानमंत्री आवास योजना (पीएमएवाई) – अनुसूचित जाति के लिए ग्रामीण पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति प्रधानमंत्री अनुसुचित जाति अभ्युदय योजना (पीएम अजयय), अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिए कार्यक्रम (पीएम वनबंधु कल्याण) योजना,) मिशन शक्ति (महिलाओं की सुरक्षा और सशक्तिकरण के लिए मिशन), प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना (पीएमजीकेएवाई), प्रधानमंत्री स्वास्थ्य सुरक्षा योजना।

ये योजनाएं मुख्य रूप से हाशिए पर पड़े वर्गों के लिए हैं। इन वर्गों को खाद्य और उर्वरक सब्सिडी में 35,000 करोड़ रुपये की भारी कटौती का भी सामना करना पड़ रहा है।

बजट में कुल वृद्धि का थोड़ा सा हिस्सा रक्षा, वित्त, ब्याज, सूचना प्रौद्योगिकी और दूरसंचार, गृह मंत्रालय, अन्य, परिवहन आदि के लिए आवंटित किया जाता है।

ये मुख्यतः संगठित क्षेत्र की आवश्यकताओं को प्रतिबिंबित करते हैं, जैसे डाक जीवन बीमा योजनाएं और रक्षा उपकरणों का अधिग्रहण।

संगठित-असंगठित क्षेत्र में दरार

जहां तक नीति निर्माताओं का सवाल है, असंगठित और संगठित क्षेत्रों के बीच स्पष्ट विभाजन है। उन्होंने संगठित क्षेत्र के बजाय असंगठित क्षेत्र को तरजीह दी है। मांग संगठित क्षेत्र की ओर स्थानांतरित होने के कारण असंगठित क्षेत्र को नुकसान उठाना पड़ रहा है।

व्यापार, चमड़े के सामान और लगेज उद्योग जैसे क्षेत्रों से इस आशय की रिपोर्टें आ रही हैं। यह महामारी के बाद की के-आकार की रिकवरी है जिसके बारे में ज़्यादातर विश्लेषक बात करते हैं – संगठित क्षेत्र में वृद्धि और असंगठित क्षेत्र में गिरावट है।

इस किस्म की वृद्धि ही भारतीय अर्थव्यवस्था और समाज की प्रमुख समस्याओं का मूल कारण है – जिसकी वजह से बेरोजगारी, बढ़ती असमानता, धीमी होती विकास दर, मुद्रास्फीति और रियायतें मिलने के बावजूद निजी क्षेत्र में कम निवेश हो रहा है।

जब बड़ी संख्या में लोगों पर इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है, तो इसका असर मतदान व्यवहार पर भी पड़ता है और यही वह बात है जिसने 2024 के चुनावों में सत्तारूढ़ पार्टी को नुकसान पहुंचाया है। दुर्भाग्य से, सरकार इनकार करती रही है और उसने अभी भी केंद्रीय बजट 2024-25 में बहुत जरूरी सुधार लागू नहीं किए हैं।

प्रतिकूल चुनाव परिणामों ने केवल बेरोजगारी और कृषि की समस्या के समाधान के प्रति दिखावे को उजागर किया है।

सरकार कुल खर्च में पर्याप्त वृद्धि क्यों नहीं कर सकी? इसके दो कारण हैं। पहला, सरकार उन संपन्न वर्गों पर टैक्स नहीं बढ़ाना चाहती थी, जिन्होंने हाल के वर्षों में बड़ी तरक्की की है। दूसरा, सरकार ने अंतरराष्ट्रीय एजेंसियों को खुश रखने के लिए वित्तीय घाटे पर खुद ही सीमा लगा दी है।

निष्कर्ष

इसलिए, सरकार के लिए भारतीय अर्थव्यवस्था के समाने मुंह बाए खड़ी गंभीर समस्याओं का समाधान करने की अपेक्षा करने का मतलब अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों को खुश करना है तथा संगठित क्षेत्र को खुश रखना और भी अधिक महत्वपूर्ण नज़र आता है।

इससे भारत न तो आत्मनिर्भर बनता सकता है और न ही विश्वगुरु। बजट 2024-25 को ‘संगठित क्षेत्र का, संगठित क्षेत्र के लिए और संगठित क्षेत्र द्वारा’ तैयार बजट के रूप में वर्णित किया जा सकता है।

 

Source: News Click