नोटबंदी और जीएसटी लाए जाने के दो साल बाद केंद्र सरकार ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम आकार के उद्योगों पर इन दोनों के प्रभाव के बारे में संसद को गुमराह किया. सरकारी आश्वासनों पर संसदीय समिति ने भ्रामक बयानों और पूरा सच न बताने के लिए सरकार को फटकारा था और दोनों निर्णयों से हुए नुकसान का फैक्ट-चेक भी किया था.
नई दिल्ली : नवंबर 2016 में केंद्र सरकार ने अचानक बड़े करंसी नोटों के विमुद्रीकरण (डिमोनेटाइज़ेशन) की घोषणा करके पूरे देश को स्तब्ध कर दिया. आम बोलचाल की भाषा में ‘नोटबंदी‘ कहे जाने वाले इस कदम से देश में चल रहे 80% करंसी नोट रातों–रात वापस ले लिए गए, जिससे भारतीय अर्थव्यवस्था को तगड़ा झटका लगा.
इसके सात महीने बाद वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने के साथ अर्थव्यवस्था को दूसरा झटका लगा. जीएसटी लागू करने के गलत तरीके से भारत के सूक्ष्म, लघु और मध्यम आकार के उद्यमों (एमएसएमई) को गहरा आघात लगा. एमएसएमई उद्योग भारत में 10 करोड़ से अधिक लोगों को रोजगार देते हैं और देश की जीडीपी में 30% का महत्वपूर्ण योगदान देते हैं.
दो साल बाद केंद्र सरकार ने सूक्ष्म, लघु और मध्यम आकार के उद्योगों पर इन दो विनाशकारी नीतियों के प्रभाव के बारे में संसद को गुमराह किया.
अविश्वसनीय रूप से, भारतीय रिज़र्व बैंक ने अपने खुद के प्रकाशित निष्कर्षों के विरुद्ध जाकर एक संसदीय समिति के समक्ष सरकार का बचाव किया. इस रिपोर्ट में बात होगी कि कैसे कम से कम एक बार सरकारी आश्वासनों पर संसदीय समिति ने सरकार का झूठ पकड़ा और गलत नैरेटिव गढ़ने के लिए उसे फटकार लगाई.
हालांकि लोकसभा और राज्यसभा की ऐसी समितियां दोनों सदनों में किए गए वादों पर सरकार की जवाबदेही तय करती हैं, इस खोजी श्रृंखला से पता चलता है कि वे बुरी तरह विफल रहीं हैं.
बड़े फैसलों का असर
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अचानक नोटबंदी की घोषणा कर देश की ज्यादातर करेंसी को ‘महज कागज़ के टुकड़े‘ में तब्दील कर दिया था. इस घोषणा के दो साल और अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था में पूर्ण बदलाव के एक साल बाद, दिसंबर 2018 में एक राज्यसभा सांसद ने केंद्रीय वित्त मंत्रालय से पूछा कि छोटे और मध्यम आकार के व्यवसायों पर इन दोनों कदमों का क्या प्रभाव पड़ा है.
मेघालय के पूर्व कांग्रेस सांसद वानसुक सियेम ने पूछा, ‘दो साल का अवलोकन करने पर हालिया रिपोर्टों से संकेत मिलता है कि सूक्ष्म और लघु व्यवसाय कंपनियां अभी भी नोटबंदी के प्रभाव से जूझ रही हैं और जीएसटी व्यवस्था की शुरुआत भी काफी उतार–चढ़ाव भरी रही है.‘
उनके सभी प्रश्नों का मंत्रालय ने रूखा-सा जवाब दिया: ‘जानकारी एकत्र की जा रही है.‘
जैसा कि इस श्रृंखला में पहले बताया गया है, यह उन वाक्यांशों में से एक है जिन्हें संसद को दिए गए आश्वासन के रूप में गिना जाता है. ऐसा कोई भी आश्वासन तीन महीने के भीतर लागू किया जाना चाहिए. सरकारी आश्वासनों पर एक समिति ऐसे सभी आश्वासनों को मॉनिटर करती है और उनमें हुई प्रगति की लगातार जांच करती है.
यह समिति एक वाचडॉग है जो सदनों में किए गए वादों पर जवाबदेही तय करती है. इस प्रक्रिया में यह समिति संबंधित मंत्रालय के अधिकारियों से मिलकर आश्वासन की प्रगति के बारे में जानकारी मांगती है.
मंत्रालय किसी आश्वासन को पूरी तरह से छोड़ देने का अनुरोध भी कर सकता है या अवधि बढ़ाने की मांग कर सकता है. कुछ मामलों में सरकार ने यह भी तर्क दिया है कि मंत्री का बयान कोई आश्वासन है ही नहीं.
इस शृंखला के पिछले भागों में हमने देखा कि संसद में मंत्रियों की घोषणाएं कैसे अधूरे वादों में बदल जाती हैं. लेकिन इस भाग में हम देखेंगे कि समिति और आधिकारियों के बीच किस तरह वाद–विवाद हुआ.
यह बातचीत दर्शाती है कि सरकार ने सच पर पर्दा डालने की कितनी कोशिश की, लेकिन इसका सबसे महत्वपूर्ण पहलू यह है कि कैसे केंद्र सरकार और रिज़र्व बैंक ने एक साथ मिलकर समिति को गुमराह करने का प्रयास किया.
सरकारें और नौकरशाही संसदीय सवालों को काफी गंभीरता से लेती हैं. जवाबों को मंत्री खुद मंजूरी देते हैं. नौकरशाही की एक बेहतरीन कला है कि किस तरह झूठ बोले बिना बहुत अधिक जानकारी देने से बचा जाए.
‘जानकारी एकत्र की जा रही है‘ इसी टूलबॉक्स का एक उपकरण है.
मौजूदा मामले में वित्त मंत्रालय ने संसद को एमएसएमई कंपनियों के प्रदर्शन पर आंकड़े उपलब्ध कराने में देरी की. सालाना 50 करोड़ रुपये से कम कमाने वाली कंपनियां एमएसएमई की श्रेणी में आती हैं. सरकार तीन महीने की समयसीमा के भीतर जवाब नहीं दे पाई.
इस देरी के कारण आश्वासन समिति ने सरकार को कड़ी फटकार लगाई. लेकिन यह आखिरी बार नहीं था जब समिति ने इस आश्वासन पर सरकार की आलोचना की हो. समिति ने मदुरै और तिरुवनंतपुरम का दौरा किया और सरकारी अधिकारियों, आरबीआई और बैंकों के प्रतिनिधियों के साथ–साथ एमएसएमई एसोसिएशनों से मुलाकात की.
समिति ने जानना चाहा कि सरकार इतना समय क्यों ले रही है, जबकि यह ‘जानकारी सिर्फ एक क्लिक करके प्राप्त की जा सकती है.’
पारंपरिक मानकों के हिसाब से यह काफी कठोर भाषा थी, खासकर इसलिए क्योंकि समिति का नेतृत्व उस समय सरकार के सहयोगी दल अन्ना द्रमुक के एक सांसद के पास था.
वित्त मंत्रालय ने अपनी ओर से दावा किया कि वह अभी भी आरबीआई के माध्यम से इस विषय पर जानकारी एकत्र कर रहा है. फिर आरबीआई की बारी थी, जिसने दो वाक्यों में दो विरोधाभासी बयान दिए. दोनों सरकार का बचाव करने के लिए थे.
पहले आरबीआई ने कहा कि कोई भी निश्चित रूप से नहीं कह सकता कि एमएसएमई कंपनियां प्रभावित हुई भी थीं या नहीं.
बैठक के विवरण के अनुसार, आरबीआई ने समिति से कहा कि ‘यह निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है कि जिस प्रभाव का सदस्य (कांग्रेस सांसद सियेम, जिन्होंने एमएसएमई पर प्रतिकूल प्रभाव के बारे में पूछा था) ने अपने प्रश्न में जिक्र किया है, वह विमुद्रीकरण के कारण था या नहीं.’
अगले ही वाक्य में आरबीआई अधिकारियों ने इस बात के सबूत होने का दावा किया कि एमएसएमई कंपनियां प्रभावित नहीं हुई हैं.
बैठक के विवरण के अनुसार, आरबीआई ने कहा कि ‘देश भर के आंकड़ों में अच्छा विकास दिख रहा है, इसलिए यह नहीं कहा जा सकता है कि विमुद्रीकरण ने एमएसएमई को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है.’
आरबीआई का यह बयान बैंक के ही अधिकारियों द्वारा साल भर पहले अगस्त 2018 में प्रकाशित एक पेपर में कही गई बात के बिल्कुल विपरीत था.
पेपर का निष्कर्ष था कि ‘नोटबंदी के कारण एमएसएमई क्षेत्र की पहले से ही धीमी चल रही क्रेडिट वृद्धि में और गिरावट आई.’
यहां क्रेडिट वृद्धि से मतलब उस धनराशि से है जो बैंकों द्वारा व्यवसायों को उधार दी जाती है. क्रेडिट के उच्च स्तर को अर्थशास्त्री स्वस्थ अर्थव्यवस्था के संकेत के रूप में देखते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि यह इंगित करता है कि कंपनियों के पास निवेश करने और अपने व्यवसाय का विस्तार करने की क्षमता और रुझान अधिक है. क्रेडिट में गिरावट से संकेत मिलता है कि कंपनियां बैंकों से उधार लेने में सावधानी बरत रही हैं. ब्याज के साथ कर्ज चुकाने के लिए ज्यादा कमाई करने की क्षमता को लेकर उनकी चिंताओं से यह डर उत्पन्न होता है.
आरबीआई के पेपर में उल्लेख किया था कि विमुद्रीकरण के बाद के चार महीनों के दौरान (पिछले साल की अपेक्षा) एमएसएमई क्रेडिट वृद्धि नकारात्मक थी.
‘एमएसएमई क्षेत्र को हाल ही में दो बड़े झटके लगे हैं: नोटबंदी और वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी). उदाहरण के लिए, वस्त्र–परिधान और रत्न–आभूषण दोनों क्षेत्रों में कॉन्ट्रैक्ट पर काम करने वालों को कथित तौर पर नुकसान हुआ क्योंकि विमुद्रीकरण के बाद कंपनियों ने पैसे देना कम कर दिया,’ पेपर में कहा गया.
बेशक, हमेशा की तरह आरबीआई ने इस पेपर को एक अस्वीकरण के साथ प्रकाशित किया था कि यह लेखकों के विचार हैं न कि केंद्रीय बैंक के. इस तरकीब का प्रयोग आरबीआई और कई अन्य संस्थान अक्सर करते हैं. ऐसा करके वह जरूरी शोध निष्कर्षों को साझा कर सकते हैं, और यदि इन निष्कर्षों से कोई राजनैतिक तूफान खड़ा होता है तो उससे बचे भी रह सकते हैं.
इस पेपर के छपने के पूरे एक साल बाद, आरबीआई के अधिकारी अब संसदीय समिति के सामने एमएसएमई क्षेत्र की समस्याओं को नोटबंदी से अलग करने की कोशिश कर रहे थे.
हालांकि, आरबीआई के जवाब में दिलचस्प रूप से एमएसएमई पर जीएसटी के प्रभाव का कोई जिक्र नहीं था, लेकिन उपरोक्त पेपर में निश्चित रूप से इसके बारे में बात की गई थी. पेपर में आरबीआई के अधिकारियों ने पाया था कि जीएसटी के कार्यान्वयन से ऐसे व्यवसायों के निर्यात में कई महीनों तक गिरावट बनी रही. देश के निर्यात में 40% हिस्सेदारी एमएसएमई की है.
संसदीय समिति के सामने पेश हुए आरबीआई अधिकारी ने ऐसे सुझावों को खारिज कर दिया कि नोटबंदी का एमएसएमई पर बुरा असर पड़ा. इसी तरह, समिति को दी गई प्रतिक्रिया में पब्लिक सेक्टर बैंकों के प्रतिनिधियों ने किसी भी स्थायी नुकसान के आरोपों को खारिज कर दिया. उन्होंने इन फैसलों से उत्पन्न कठिनाइयों को ‘अस्थायी‘ बताया, और अपने दावे को साबित करने के लिए मार्च 2018 तक एमएसएमई कंपनियों की क्रेडिट वृद्धि में ‘रिकवरी‘ की ओर इशारा किया.
हालांकि यह बात सही थी, लेकिन सरकार पूरी तस्वीर छिपा रही थी.
एमएसएमई कंपनियों की गैर–निष्पादित परिसंपत्तियों (एनपीए) की दर बढ़ गई थी. एनपीए ऐसे कर्जों को कहा जाता है जिन्हें चुकाया जाना संभव नहीं है. आरबीआई के अगस्त 2018 के पेपर में कहा गया है कि ‘निजीऔर पब्लिक सेक्टर बैंकों दोनों का एमएसएमई क्षेत्र से संबंधित एनपीए समय के साथ बढ़ा है.’
क्रेडिट सूचना एजेंसी ट्रांसयूनियन सिबिल का एमएसएमई स्ट्रेंथ सूचकांक मार्च 2018 की बेसलाइन के आधार पर इस सेक्टर के स्वास्थ्य को मापता है. इसके अनुसार दिसंबर 2019 तक सेक्टर की सेहत में लगातार गिरावट होती रही.
मार्च 2020 में कोविड-19 महामारी आने के साथ एमएसएमई क्षेत्र को एक और गंभीर झटका लगा.
सूक्ष्म, लघु और मध्यम उद्यम (एमएसएमई) मंत्रालय के अधिकारियों ने समिति को बताया कि उन्होंने भी सेक्टर पर नोटबंदी के प्रभाव का मूल्यांकन नहीं किया है.
हालांकि, मंत्रालय ने एमएसएमई एसोसिएशनों के साथ अपनी बैठकों का जिक्र किया, जिसमें कथित तौर पर नोटबंदी की तारीफ की गई थी.
मंत्रालय के अधिकारी के मुताबिक, ‘इन संगठनों ने नोटबंदी का स्वागत किया था.’
आधिकारिक घोषणाओं को स्वीकार करने में सावधानी बरतते हुए आश्वासन समिति ने इस दावे का फैक्ट–चेक करने का निर्णय लिया. इसने उनकी प्रतिक्रिया जानने के लिए तमिलनाडु और केरल में छह अलग–अलग एमएसएमई एसोसिएशनों से मुलाकात की.
केरल होटल और रेस्तरां एसोसिएशन के प्रमुख ने समिति को बताया, ‘मंदी के कारण हजारों होटल बंद हो गए.‘ इस बीच, तमिलनाडु के सेलम स्थित एमएसएमई एसोसिएशन ने कहा कि छोटे व्यवसायों के पास पैसे की इतनी कमी हो गई है कि उन्हें अपनी ईएमआई या मासिक किश्तों का भुगतान करना मुश्किल हो गया है.
मदुरै स्थित एक एसोसिएशन ने बताया कि नोटबंदी और जीएसटी के बाद निर्यात में भी गिरावट आई है. यह तथ्य 2018 के आरबीआई के पेपर में भी सामने आया था. इसी तरह, राइस मिल और लकड़ी निर्माताओं ने विमुद्रीकरण के बाद आय में भारी गिरावट के बारे में बताया.
समिति ने आरबीआई के आशाजनक दृष्टिकोण और एमएसएमई कंपनियों के अनुभवों के बीच विरोधाभासों पर प्रकाश डाला. बैठक के विवरण के अनुसार, समिति ने कहा, ‘उसके समक्ष पेश हुए एमएसएमई क्षेत्र के प्रतिनिधियों ने कहा है कि वे वास्तव में नोटबंदी से प्रभावित हुए हैं.’
कई बार समयसीमा बढ़ाने के बाद अंततः आश्वासन को पूरी तरह से लागू हुआ मान लिया गया. हालांकि, समिति को दी गई किस विशिष्ट जानकारी के कारण यह निष्कर्ष निकला, यह पता नहीं लगाया जा सकता है.
संसद में वित्त मंत्रालय और एमएसएमई मंत्रालय दोनों को अर्थव्यवस्था, विशेषकर लघु उद्योगों पर नोटबंदी के प्रभाव के बारे में और सवालों का भी सामना करना पड़ा.
हाल ही में, अगस्त 2023 में दोनों मंत्रालयों ने यह स्पष्ट कर दिया कि दोनों में से कोई भी अर्थव्यवस्था या एमएसएमई पर विमुद्रीकरण के प्रभावों का आकलन नहीं कर रहा है.
क्रेडिट रेटिंग एजेंसी इंडिया रेटिंग्स एंड रिसर्च के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 2015-16 और 2022-23 के बीच 63 लाख एमएसएमई कंपनियां बंद हो गईं, जिसके परिणामस्वरूप देश भर में 1.3 करोड़ नौकरियां चली गईं. एजेंसी ने इस तबाही के लिए नोटबंदी, जीएसटी और कोविड-19 महामारी को जिम्मेदार ठहराया है.
यह वादे भी नहीं हुए पूरे
वित्तीय वर्ष का पुनर्निर्धारण
अपने पहले कार्यकाल की शुरुआत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वित्त मंत्रालय से भारत के वित्तीय कैलेंडर की समीक्षा करने और उसकी पुनर्कल्पना करने के लिए कहा था. यह भारतीय शासन को कथित रूप से ‘उपनिवेशवाद से मुक्ति‘ दिलाने की भाजपा सरकार की एक और कोशिश थी.
कैलेंडर वर्ष के विपरीत वित्तीय वर्ष का उपयोग बजट, एकाउंटिंग और टैक्सेशन आदि के लिए किया जाता है. केंद्रीय आदि बजट आपको बताते हैं कि सरकार आगामी वित्तीय वर्ष के अंत तक कितना खर्च करने का इरादा रखती है. इसी प्रकार, व्यवसायों को उसी समय तक अपने वार्षिक वित्तीय विवरण प्रस्तुत करने होते हैं.
प्रधानमंत्री का सुझाव था कि वित्तीय कैलेंडर को भी जनवरी से दिसंबर करने या फिर अक्टूबर–नवंबर के दौरान दिवाली से शुरू करने पर विचार किया जाए. वर्तमान में वित्तीय वर्ष अप्रैल से शुरू होता है.
उनके सुझाव के बाद मंत्रालय ने तुरंत जुलाई 2016 में एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया. पैनल को देश की टैक्स प्रणाली, खेती के मौसम और केंद्रीय बजट से संबंधित कार्यों आदि के मद्देनज़र वित्तीय वर्ष निर्धारित करने का काम सौंपा गया था.
7 अप्रैल 2017 को तत्कालीन भाजपा सांसद अभिषेक सिंह ने मंत्रालय से सवाल किया कि ‘अधिकांश विकसित देशों से अलग, वित्तीय वर्ष अप्रैल–मार्च के दौरान होने से जो असुविधा होती है, क्या वह उसके बारे में जानते हैं.’
सिंह ने यह भी पूछा कि क्या सरकार वित्तीय वर्ष को आगे बढ़ाने पर विचार करेगी. तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सदन को बताया कि कई लोगों का यही सुझाव है, और यह कितना व्यावहारिक होगा इसका पता लगाने के लिए 2016 में एक विशेषज्ञ पैनल का गठन किया गया था.
उन्होंने समिति के सुझावों के बारे में संसद को नहीं बताया. लेकिन उनकी प्रतिक्रिया ने एक बहस छेड़ दी.
तत्कालीन कांग्रेस सांसद कमलनाथ ने सरकार से इस विशेषज्ञ पैनल के निष्कर्षों को साझा करने के लिए कहा. उन्होंने यह भी जानना चाहा कि सरकार अंतिम निर्णय कब लेगी.
जवाब में जेटली ने बात टाल दी. उन्होंने सदन से कहा कि इसके लिए ‘बहुत व्यापक परामर्श और सोच–विचार आवश्यक है.’ उन्होंने कहा कि सरकार अपना मन बना रही है और निर्णय लेने के बाद पैनल की सिफारिशें जारी की जाएंगी.
दूसरे शब्दों में, उनका तात्पर्य यह था कि विशेषज्ञ पैनल की रिपोर्ट तब सार्वजनिक की जाएगी जब सरकार यह तय कर लेगी कि उसकी सिफारिशों को अपनाया जाए या नहीं.
तीन साल बीत गए. रिपोर्ट को न तो सार्वजनिक किया गया और न ही संसद में रखा गया. दिसंबर 2021 में मोदी सरकार ने संसदीय समिति से आश्वासन हटाने का अनुरोध किया.
इसलिए क्योंकि विशेषज्ञ पैनल द्वारा इस मामले पर विचार–विमर्श करने के पांच साल बाद भी सरकार इस मुद्दे पर ‘विचार‘ कर रही थी. सरकार ने कहा कि इस मामले में इतना समय लग गया क्योंकि इस फैसले का ‘अर्थव्यवस्था के सभी क्षेत्रों पर दूरगामी प्रभाव‘ होगा.
संसदीय समिति ने सरकार की मांग खारिज कर दी. सरकार अब अपने तीसरे कार्यकाल में है, और आश्वासन पिछले 86 महीनों से लंबित है.
नहीं खुलेगा भानुमती का पिटारा
पिछले दशक के दौरान समय–समय पर अमीर और शक्तिशाली लोगों की टैक्स चोरी को उजागर करने वाले खुलासे होते रहे हैं. इन खुलासों से पता चला कि कैसे भारत के सबसे अमीर लोगों ने टैक्स से बचने के लिए अपनी संपत्ति विदेशों में जमा की है. इन खुलासों से लोगों में आक्रोश फैल गया. इस अघोषित संपत्ति को काला धन माना जाता है.
सत्ता में आने से पहले और बाद में नरेंद्र मोदी ने बार–बार काले धन के खिलाफ युद्ध छेड़ने का वादा किया है.
2016 में पनामा पेपर्स और 2017 में पैराडाइज़ पेपर्स के बाद, अक्टूबर 2021 में ऐसे ही एक और खुलासे की खबर आई, जिसे पैंडोरा पेपर्स नाम दिया गया.
7 दिसंबर 2021 को इन खुलासों ने संसद में मोदी सरकार को सवालों के घेरे में ला खड़ा किया.
भाजपा सांसद सुशील कुमार मोदी ने वित्त मंत्रालय से पूछा कि पनामा और पैराडाइज पेपर्स की जांच के बाद कितनी अघोषित संपत्ति का पता चला है और सरकार इसमें से कितनी रकम बरामद करने में कामयाब रही है. उन्होंने उन भारतीयों और प्रवासी भारतीयों की संख्या के बारे में भी पूछा, जिन्हें नवीनतम पैंडोरा पेपर्स खुलासे के बाद नोटिस दिए गए थे.
मंत्रालय ने पिछले खुलासों के बारे में कुछ जानकारी दी और स्वीकार किया कि पैंडोरा लीक में भी भारतीय नागरिकों के नाम थे.
सरकार ने इन नामों का खुलासा नहीं किया लेकिन संसदीय समिति को बताया कि पैंडोरा पेपर्स में 200 भारतीयों के नाम थे. मंत्रालय ने जांच का कोई विवरण भी नहीं दिया. इसमें शामिल व्यक्तियों का नाम लिए बिना भी संसद को जांच की स्थिति के बारे में बताया जा सकता था. लेकिन, सरकार ने ऐसा नहीं किया.
इस पर समिति ने सरकार को घेरा. दिसंबर 2023 में इसने सरकार से ‘अब तक जांच में हुई प्रगति का विवरण देने’ के लिए कहा. जुलाई 2024 में भी यह आश्वासन लंबित है, जबकि विदेश से सारा ‘काला धन’ वापस लाने का वादा करके आए प्रधानमंत्री मोदी तीसरी बार सत्ता में आ चुके हैं.