भारत के अखबार इन्हीं खबरों से पटे पड़े हैं कि किस तरह पिछले कुछ दिनों में ही, डॉलर के मुकाबले रुपये के मूल्य में गिरावट हुई है। मुश्किल से महीना भर पहले, 27 नवंबर को डॉलर का मूल्य 84 रुपये 55.9 पैसे के बराबर था। 29 दिसंबर तक आते-आते यह बढक़र 85.5 रुपये पर पहुंच गया।
रुपये के मूल्य में यह तमाम गिरावट इसके बावजूद हुई है कि रुपये के विनिमय मूल्य को थामे रखने के लिए, भारतीय रिजर्व बैंक ने विदेशी मुद्रा संचित भंडार में से विदेशी मुद्रा बाजार में डाली है। यह संचित कोष, जो 22 नवंबर को 657.89 अरब डॉलर था, 20 दिसंबर तक घटकर 644.39 अरब डॉलर रह गया था, इसके बावजूद रुपये के विनिमय मूल्य में गिरावट को नहीं रोका जा सका। जाहिर है कि अगर संचित कोष में से विदेशी मुद्रा नहीं निकाली जा रही होती, तो विनिमय दर में गिरावट और भी ज्यादा रही होती।
एक दीर्घावधि परिघटना
बेशक, डॉलर की तुलना में रुपये के मूल्य में गिरावट एक दीर्घावधि और लगातार जारी परिघटना बनी रही है। काफी लंबे अर्से तक, नियंत्रणात्मक दौर में डॉलर के मुकाबले रुपये का मूल्य तयशुदा रहता था और उसमें कभी-कभार सरकार द्वारा नियंत्रित अवमूल्यन ही हुआ करता था। उस दौर में रुपये के इस विनिमय मूल्य को अर्थव्यवस्था में चल रहे विदेशी मुद्रा नियंत्रणों के जरिए साधे रखा जाता था।
लेकिन, एक बार जब इन विदेशी मुद्रा नियंत्रणों को उठा लिया गया, जब रुपये को पहले-पहल तैरने के लिए छोड़ा गया, उसका विनिमय मूल्य 22.74 रुपये प्रति डॉलर आया था। बहरहाल, 2014 में जब नरेंद्र मोदी ने सत्ता संभाली, तब तक यह विनिमय मूल्य 62.33 रुपये प्रति डॉलर हो चुका था और अब तो यह मूल्य 85.5 रुपये से भी ऊपर निकल चुका है।
रुपये की विनिमय दर में इस लगातार जारी दीर्घावधि गिरावट की वजह यह नहीं है कि भारत में मुद्रास्फीति की दर अमरीका के मुकाबले ज्यादा है। बेशक, भारत में मुद्रास्फीति की दर अमरीका के मुकाबले ज्यादा है, लेकिन यह डॉलर के मुकाबले रुपये के अवमूल्यन का मुख्य कारण नहीं है।
वास्तव में इसके विपरीत, भारत में मुद्रास्फीति की दर के अमरीका के मुकाबले में लगातार ज्यादा बने रहने का एक महत्वपूर्ण कारण तो, डॉलर के मुकाबले रुपये का अवमूल्यन ही है, जिसके चलते तेल आदि अनेक आवश्यक लागत सामग्रियों का आयात मूल्य बढ़ जाता है और ये बढ़े हुए दाम समूची अर्थव्यस्था में बढ़े हुए दाम के तौर पर फैला दिए जाते हैं।
बेशक, रुपये के अवमूल्यन का प्राथमिक कारण चाहे जो हो, एक बार उससे मुद्रास्फीति को उत्प्रेरण मिल जाता है, तो उसका निश्चित रूप से रुपये की विनिमय दर पर प्रभाव पड़ता है।
सटोरिये इसकी प्रत्याशा करते हैं कि मुद्रास्फीति के चलते विनिमय दर में और गिरावट आएगी और वास्तव में विनिमय दर में और गिरावट पैदा कर देते हैं।
लेकिन, रुपये के अवमूल्यन का प्राथमिक कारण यह है कि भारतीय धन्नासेठ अपनी संपदा, भारतीय रुपये में रखने के मुकाबले, अमरीकी डॉलर में रखना ही ज्यादा पसंद करते हैं। इससे रुपये से डॉलर के पक्ष में लगातार बदलाव होता है और रुपये का अवमूल्यन होता है।
डॉलर क्यों मजबूत हो रहा है
डॉलर की तुलना में विनिमय दर में हमेशा और लगातार गिरावट की इस तरह की परिघटना सिर्फ भारत तक ही सीमित नहीं है। यह परिघटना अधिकांश तीसरी दुनिया की पहचान ही है। और यह इसका एक बहुत ही महत्वपूर्ण कारण है कि क्यों रुपये की विनिमय दर को कभी भी तैरता नहीं छोड़ा जाना चाहिए बल्कि उसे डॉलर के साथ निश्चित स्तर पर बांधा जाना चाहिए तथा इस स्तर को पूंजी नियंत्रणों के जरिए तथा जिस हद तक जरूरी हो विदेशी मुद्रा नियंत्रणों के जरिए साधे रखा जाना चाहिए, जैसा कि नियंत्रणात्मक दौर में होता था।
रुपये के विनिमय मूल्य में यह लगातार होने वाली गिरावट, फिर भी असमान रूप से होती है। कुछ दौरों में यह गिरावट कहीं तेजी से लुढ़कने के रूप में होती है, जबकि दूसरे दौरों में कम रफ्तार की गिरावट के रूप में होती है। इसलिए, सवाल यह उठता है कि पिछले कुछ हफ्तों में रुपये के विनिमय मूल्य में अचानक तेजी से गिरावट क्यों हुई है?
अखबारों में विस्तार से इस पर चर्चा की जा रही है कि इस समय रुपया इतनी तेजी से क्यों गिर रहा है और टिप्पणीकार इसके लिए भारत की वर्तमान मुद्रास्फीति की दर अमरीका के मुकाबले ज्यादा होने और भारत के व्यापार घाटे में वर्तमान बढ़ोतरी को भी कारण बता रहे हैं। लेकिन, एक कारक जिस पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया गया है, पिछले कुछ अर्से में रुपये के मुकाबले में ही नहीं बल्कि दुनिया की करीब-करीब हरेक प्रमुख मुद्रा के मुकाबले डॉलर का मजबूत होना है।
दूसरे शब्दों में, भारत से ही जुड़े कारकों के अलावा कुछ बुनियादी कारण भी हैं कि डॉलर इस समय सिर्फ रुपये के मुकाबले ही नहीं बल्कि हरेक प्रमुख मुद्रा के मुकाबले मजबूत हो रहा है। वास्तव में पिछले एक दशक के दौरान कभी भी डॉलर उतना मजबूत नहीं रहा था, जितना कि आज है।
ब्लूमबर्ग के डॉलर स्पॉट इंडैक्स में इस साल 7 फीसद की बढ़ोतरी दर्ज हुई है, जो इसे शुद्ध मात्रा के हिसाब से 2015 के बाद के दूसरे किसी भी साल से ज्यादा बना देता है।
क्या डॉलर अपवाद है?
डॉलर का यह मजबूत होना, पहली नजर में हैरान करने वाला लग सकता है। निर्वाचित अमरीकी राष्ट्रपति, डोनाल्ड ट्रंप ने हाल ही में तटकरों में बढ़ोतरियों की घोषणा की है, जो वह राष्ट्रपति पद संभालने के बाद, देश में लागू करने जा रहे हैं। हमें हर रोज आईएमएफ से लेकर विश्व बैंक तथा विश्व व्यापार संगठन तक से, इसके उपदेश सुनने को मिलते हैं कि मुक्त व्यापार कितनी कमाल की चीज है। इस हिसाब से उन्हें ट्रंप की प्रस्तावित नीति को प्रतिगामी की श्रेणी में रखना चाहिए। और चूंकि बाजार ही ‘बेहतरीन निर्णयकर्ता है’, बाजार के अमरीका के भविष्य पर भरोसे में कुछ कमी हो जानी चाहिए और वहां से कुछ न कुछ पूंजी पलायन शुरू हो जाना चाहिए और इसके चलते डॉलर के मूल्य में गिरावट होनी चाहिए।
लेकिन, हम देखते हैं कि हो तो इससे ठीक उल्टा रहा है। इससे भी बढक़र यह कि ज्यादातर बाजारों के प्रेक्षक तो अमरीकी संरक्षणवाद की संभावनाओं को, डॉलर के मजबूत होने के पीछे काम कर रहे कारक के तौर पर ही पेश कर रहे हैं। इस पहली नजर में चकराने वाली लगने वाली परिघटना की हम किस तरह से व्याख्या कर सकते हैं?
इस पहेली का सरल सा जवाब यह है कि मुक्त तथा उदार व्यापार के गुणों के जो उपदेश तीसरी दुनिया के सहज भरमाए जा सकने वाले या आसानी से पटाए जा सकने वाले राजनीतिज्ञों के लिए दिए जाते हैं, उन्हें बाजार खुद खास गंभीरता से नहीं लेता है। यह स्वत:स्पष्ट है कि अमरीका में संरक्षणवाद आने से, उस देश में सकल मांग बढ़ेगी और इसलिए, उसके उत्पाद तथा रोजगार भी बढ़ेंगे।
और यह सब हो रहा होगा आयातों के एक हिस्से के लिए दरवाजे बंद करने के जरिए, जिसने उसके घरेलू उत्पादन को प्रतिस्थापित कर रखा था। इसके अलावा यह, शेष पूंजीवादी दुनिया की कीमत पर अमरीका में रोजगार की स्थिति में सुधार करने के साथ ही, अमरीका के व्यापार संतुलन में भी सुधार कर रहा होगा। वास्तव में इस तरह से, अमरीका के व्यापार संतुलन में सुधार करने के जरिए ही, उसकी सकल मांग को बढ़ाया जा रहा होगा।
संक्षेप में यह कि अपने संरक्षणवादी कदमों के जरिए अमरीका अपनी भुगतान संतुलन की स्थिति और रोजगार व उत्पाद की स्थिति, दोनों में ही सुधार कर रहा होगा। इसके चलते अमरीकी अर्थव्यवस्था के संबंध में बाजार का आकलन, गिरावट का नहीं बल्कि सुधार को ही दर्शाता है। और यह, मुक्त व्यापार के पैरोकार हमसे जो मनवाना चाहते हैं, उससे ठीक उल्टा है। यह आर्थिक दशा में सुधार का बाजार का आकलन, डॉलर पर बाजार का भरोसा, अन्य प्रमुख मुद्राओं की तुलना में बढ़ाने का काम करता है और इस तरह अन्य प्रमुख मुद्राओं के मुकाबले डॉलर के मूल्य में बढ़ोतरी पैदा करता है।
बाक़ी दुनिया में होगा मज़दूरों का दरिद्रीकरण
बेशक, अमरीका में संरक्षणवाद से वहां मुद्रास्फीति की दर में कुछ न कुछ बढ़ोतरी होगी। लेकिन, इससे तय है कि शेष पूंजीवादी दुनिया में मुद्रास्फीति में और ज्यादा बढ़ोतरी होगी। ऐसा इसलिए होगा कि अनेक मालों और खासतौर पर तेल जैसी अनेक अति-महत्वपूर्ण लागत सामग्रियों की कीमतें डॉलर में तय होती हैं। इसलिए, अन्य मुद्राओं की तुलना में डॉलर के मूल्य में बढ़ोतरी का नतीजा यह होगा कि अन्य मुद्राओं की सापेक्षता में ये कीमतें पहले से बढ़ जाएंगी और इस तरह इन अन्य अर्थव्यवस्थाओं में मुद्रास्फीति को आगे धकिया दिया जाएगा।
इसलिए, इन अन्य देशों के मजदूरों को दो बहुत ही भिन्न कारणों से अपने जीवन स्तर में गिरावट का सामना करना पड़ रहा होगा। इनमें एक कारण है, अमरीकी संरक्षणवाद के चलते, अमरीकी बाजार के हाथ से निकल जाने के चलते, रोजगार में गिरावट। और दूसरा कारण है, डॉलर के मुकाबले अन्य मुद्राओं के अवमूल्यन से लगने वाले लागत बढ़ोतरी के धक्के के चलते, मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी। और अगर इन देशों की सरकारें, ‘कटौती’ के कदमों के जरिए मजदूरों की कीमत पर, इस तरह की लागत बढ़ाने वाली मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने की कोशिश करती हैं, जिससे बेरोजगारी बढ़ती है तथा मजदूरों की सौदेबाजी की शक्ति कमजोर होती है, तो यह मजदूरों के दरिद्रीकरण का ही एक और रास्ता होगा।
सट्टा बाज़ार का खेल
बाहरी कर्ज से दबे तीसरी दुनिया के देशों के मामले में, उपरोक्त रास्तों से बेरोजगारी तथा मुद्रास्फीति में बढ़ोतरी के अलावा भी, मेहनतकशों पर अतिरिक्त बोझ पड़ने का एक रास्ता और है। और यह रास्ता है उनके विदेशी कर्ज का मूल्य, उनकी स्थानीय मुद्रा में बढ़ जाने का क्योंकि ये विदेशी ऋण सामान्य रूप से डॉलर में ही लिए जाते हैं। इसलिए, इन देशों के ऋण संबंधी ब्याज आदि भुगतानों का बोझ बढ़ जाए और इसकी मार अनिवार्यत: मेहनतकश जनता पर पड़ेगी।
विश्व अर्थव्यवस्था में उन्मुक्त होकर जो सामने आ रहा है, वह पूंजीवादी व्यवस्था की एक बुनियादी अतार्किकता की ही अभिव्यक्ति है। यह बुनियादी अतार्किकता यह है कि करोड़ों लोगों की जिंदगी के हालात, मुट्ठीभर सटोरियों की सनक और लालच पर निर्भर बनाकर के छोड़ दिए गए हैं। अमरीकी संरक्षणवाद के चलते, अमरीकी अर्थव्यवस्था में सकल मांग में और इसलिए रोजगार तथा उत्पाद में बढ़ोतरी आ सकती है, यह तथ्य बेशक एक महत्वपूर्ण भौतिक कारक है। लेकिन, अन्यत्र विनिमय दरों पर इसका प्रभाव बाजार के खिलाडिय़ों की प्रत्याशाओं का नतीजा है। और ये प्रत्याशाएं सट्टा बाजार आचरण से प्रशासित होती हैं और पूंजीवाद के अंतर्गत इसी आचरण से फर्क पड़ता है।
Source: News Click