
बिहार में मतदाता सूची के ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ के मामले में चुनाव आयोग के रवैए से लगता है कि उसे स्वतंत्र व निष्पक्ष होने की तो दूर दिखने की भी परवाह नहीं रह गई है. होती तो वह चुनाव प्रक्रिया में मतदाताओं की समग्र भागीदारी की पहले से ही मुश्किल राहों की समस्याएं दूर करता, न कि उनकी भागीदारी को और कम करने वाला रवैया अपना लेता.
निस्संदेह, चुनाव आयोग ने बिहार में मतदाता सूची के ‘विशेष गहन पुनरीक्षण’ (एसआईआर) के मामले में मनमानी की हद कर दी है. उसके रवैए से लगता है कि उसे स्वतंत्र व निष्पक्ष होने की तो दूर दिखने की भी परवाह नहीं रह गई है. होती तो वह चुनाव प्रक्रिया में मतदाताओं की समग्र भागीदारी की पहले से ही मुश्किल राहों की समस्याएं दूर करता, न कि उनकी संख्या में कांट-छांट के रास्ते चलकर इस भागीदारी को और कम करने वाला रवैया अपना लेता.
तब वह सारे मतदाताओं के नाम मतदाता सूची में शामिल करने की अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़कर उसे पूरी तरह मतदाताओं को नहीं ओढ़ा देता कि वे स्वयं मतदाता होने के उसे आश्वस्त करने वाले दुर्लभ प्रमाण देकर फार्म भरें और अपने नाम उसकी सूची में शामिल कराएं, अन्यथा अपना मताधिकार गंवाएं.
सच पूछिए, तो उसका यह रवैया 2014 में भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के बहुमत वाली नरेंद्र मोदी सरकार के देश की सत्ता में आने के बाद से ही संवैधानिक संस्था के रूप में उसके क्षरण की क्रमशः तेज होती गई प्रक्रिया की ही नई या कि ताजा परिणति है.
क्षरण की इस प्रक्रिया ने इससे पहले भी कई अवसरों पर ऐसी स्थितियां पैदा की हैं जब विपक्षी दलों को यह महसूस करने को मजबूर होना पड़ा है कि उन्हें सत्तारूढ़ भाजपा से पहले चुनाव आयोग का मुकाबला करना है. क्योंकि वह अंपायर के रूप में सारे खिलाड़ियों को लेवल प्लेइंग फील्ड उपलब्ध कराने के अपने दायित्व से विमुख होकर सत्तादल का शुभचिंतक हो गया है और चुनावों की स्वतंत्रता व निष्पक्षता के अपने दायित्व के प्रति उसकी गंभीरता लगातार कम होती जा रही है.
आम चुनाव तो आम चुनाव, उत्तर प्रदेश समेत भाजपा शासित कई राज्यों के लोकसभा व विधानसभा के उपचुनावों में भी उसने उसकी जीत के लिए खुले फर्रुखाबादी खेल की कोई सीमा नहीं रहने दी है.
गौरतलब है कि जब भी किसी स्तर पर उसके इस लोकतंत्र विरोधी आचरण के विरुद्ध आवाज उठाई जाती है, वह उन चुनाव नतीजों के हवाले से बच निकलने की कोशिश करता है, जो उसकी तमाम बदगुमानियों और बेईमानियों के बावजूद विपक्षी दलों के पक्ष में चले जाते हैं. तब उसकी ओर से ‘अब बताइए?’ की शैली में खासी दीदादिलेरी से पूछा जाता है कि हमने गड़बड़ी की होती तो ऐसा होता क्या.
कौन बताए उसको कि कभी-कभी मतदाताओं की नाराज़गी इतनी प्रबल होती है कि सारी धांधलियों के बावजूद सत्तादल के मंसूबे नहीं फलते.
यहां नतीजों की अपेक्षा बहुत बड़ा सवाल यह है कि क्या आयोग में पैदा हुई इस स्थिति को प्रायः सारी संवैधानिक संस्थाओं के तेजी से हो रहे क्षरण से अलग करके भी देखा जा सकता है? कहीं इसकी जड़ें मुख्य चुनाव आयुक्त और उनके सहयोगी चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति की संविधान में की गई व्यवस्था के प्रावधानों में ही तो नहीं है?
अगर हां, तो निदान क्या है?
आइये, बात को शुरू से समझने की कोशिश करते हैं.
संविधान सभा की बहस
संविधान सभा में 15-16 जून, 1949 को निर्वाचन आयोग के गठन और उसकी शक्तियों को लेकर लंबी बहस हुई थी, जिसमें सभा के सदस्यों की मुख्य चिंता यह थी कि आयोग की स्वतंत्रता व निष्पक्षता कैसे सुनिश्चित की जाए?
इस बहस में पं. हृदयनाथ कुंजरू ने बहुत जोर देकर कहा था कि हम वयस्क मताधिकार पर आधारित लोकतंत्र स्थापित करना चाहते हैं तो जरूरी है कि देशवासियों में चुनाव व्यवस्था के सुचारु रूप से कार्य करने का विश्वास पैदा करने के हर संभव उपाय करें. उनका कहना था कि इस व्यवस्था में दोष होंगे, वह कुशल नहीं होगी अथवा उसे ऐसे व्यक्ति चलाएंगे, जिनकी सच्चाई पर हम निर्भर नहीं रह सकते तो हमारे लोकतंत्र का स्रोत ही विषाक्त हो जाएगा.
इसी तरह कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का कहना था कि चुनाव व्यवस्था के लिए महज इतने काफी नहीं है कि चुनाव आयोग स्वतंत्र रहे. यह भी अपेक्षित है कि वह निष्पक्ष रहे क्योंकि उसका निष्पक्ष न होना हमारे लोकतंत्र के लिए बहुत बड़े जोखिम की बात होगी.
प्रसंगवश, संविधान के प्रारूप (मसौदे) में व्यवस्था की गई कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी तो इसे लेकर सदस्यों को सबसे बड़ा अंदेशा यह था कि राष्ट्रपति द्वारा की जाने वाली यह नियुक्ति अपने वास्तविक रूप में प्रधानमंत्री द्वारा नियुक्ति में बदल जाएगी, क्योंकि राष्ट्रपति, जैसी कि उनसे अपेक्षा की जाती है, उसे प्रधानमंत्री के परामर्श से ही करेंगे.
स्वाभाविक ही सभा के अनेक सदस्यों को इस पर घोर आपत्ति थी और उनका कहना था कि राष्ट्रपति मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति प्रधानमंत्री की सलाह पर करेंगे तो मुख्य चुनाव आयुक्त सत्तारूढ़ दल के प्रति पक्षपाती तो हो ही सकते हैं, उसके दबाव में भी आ सकते हैं.
तब प्रो. केटी शाह ने इस व्यवस्था को कठघरे में खड़ी करते हुए यह तक कह डाला था कि इसके रहते यह भी संभव है कि कोई सत्तारूढ़ दल आने वाले चुनावों में सफल होने के लिए अपने प्रति पक्की निष्ठा रखने वाले किसी व्यक्ति को मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करा दे. फिर क्या होगा? वह मुख्य चुनाव आयुक्त स्वतंत्र व निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए उसे दी गई शक्तियों का दुरुपयोग करने लगे तो उसे कैसे रोका जाएगा
संवैधानिक व्यवस्था के अनुसार बहुत गंभीर आरोप लगाने पर संसद के दोनों सदनों में दो तिहाई बहुमत से उसे पदच्युत किया जा सकेगा. लेकिन इसका अर्थ है कि उसे पदच्युत करना भी बहुत कुछ असंभव ही होगा.
इस स्थिति से बचने के लिए उन्होंने ऐसी व्यवस्था का सुझाव दिया था जिसमें वही व्यक्ति मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त किया जा सके, जो सभी दलों का विश्वासभाजन हो. उन्होंने संविधान में ऐसी व्यवस्था का सुझाव दिया था कि राष्ट्रपति जिसे मुख्य चुनाव आयुक्त नियुक्त करें, उस व्यक्ति के लिए संसद के दोनों सदनों के संयुक्त सत्र में उपस्थित तथा मत देने वाले सदस्यों के दो तिहाई का समर्थन पाना अनिवार्य हो.
उनका मानना था कि इससे सत्तारूढ़ दल इस पद पर मनमाने तरीके से किसी ‘अपने’ की नियुक्ति नहीं कर सकेगा. सभा के एक अन्य सदस्य शिब्बन लाल सक्सेना ने भी कुछ इसी तरह के सुझाव दिए थे.
पुराना सिरदर्द
लेकिन विडम्बना यह कि ऐसे किसी भी सुझाव को स्वीकार नहीं किया गया. इसके बावजूद कि संविधान की प्रारूप (मसौदा) समिति के अध्यक्ष बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर का मानना था कि उनके द्वारा प्रस्तावित चुनाव आयोग के गठन की व्यवस्था में कोई ऐसा उपबंध नहीं है, जिससे मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य चुनाव आयुक्तों के पदों पर अनुपयुक्त व्यक्तियों को नियुक्त होने से रोका जा सके.
16 जून,1949 को सभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा था कि मैं स्वीकार करना चाहता हूं कि यह अत्यंत महत्वपूर्ण प्रश्न है, जिससे मुझे बहुत सिरदर्द रहा है और मुझे इसमें संदेह नहीं है कि इससे सदन को बहुत सिरदर्दी होगी.
उस समय इस सिरदर्द का उपयुक्त इलाज न किए जाने का फल यह हुआ है कि संविधान लागू होने के 75 वर्ष होते-होते यह डॉ. आंबेडकर या सदन का ही नहीं, पूरे देश का सिरदर्द बन गया है. चुनाव आयोग द्वारा बरते जा रहे पक्षपात के कारण न सिर्फ चुनाव के नतीजों में आम लोगों का विश्वास कम होता जा रहा है, बल्कि हमारा लोकतंत्र ही गंभीर खतरे में पड़ता दिखने लगा है.
संविधान के जानकार डॉ. रामबहादुर वर्मा की मानें, तो इस लिहाज से अमेरिका का संविधान हमारे संविधान से कहीं बेहतर है. वहां के संविधान ने राष्ट्रपति को सर्वोच्च न्यायालय के जजों सहित शासन-सत्ता के सभी महत्वपूर्ण पदों पर नियुक्तियों का अधिकार दे रखा है, लेकिन उनके द्वारा की गई नियुक्तियों का अंतिम अनुमोदन सीनेट कहलाने वाला संसद का उच्च सदन अपने बहुमत से करता है. यह उच्च सदन अनुमोदन से पहले नियुक्त होने वाले व्यक्ति की पूरी छानबीन करता और जरूरत पड़ने पर उसका इंटरव्यू भी लेता और उससे सवाल -जवाब भी करता है. इस काम में उसके सदस्य दलीय प्रतिबद्धता से ऊपर उठकर काम करते हैं.
डॉ. वर्मा कहते हैं कि प्रो. केटी शाह व शिब्बन लाल सक्सेना के सुझाव स्वीकार कर लिए गए होते तो चुनाव आयोग में किसी भी हालत में पक्षपाती मुख्य चुनाव आयुक्त अथवा चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति संभव नहीं हो पाती.
लेकिन इसके विपरीत आज हालत यह है कि मुख्य चुनाव आयुक्त एवं चुनाव आयुक्तों के रूप में उपयुक्त व्यक्तियों के चयन के लिए 2023 में 2 मार्च को सर्वोच्च न्यायालय की संविधान पीठ ने कहा कि राष्ट्रपति द्वारा उनकी नियुक्तियां प्रधानमंत्री, लोकसभा में विपक्ष के नेता व भारत के मुख्य न्यायाधीश की एक समिति की सलाह पर की जाएं तो नरेंद्र मोदी सरकार ने उसे भी सदिच्छापूर्वक स्वीकार करना गवारा नहीं किया. भले ही संविधान पीठ ने जोर देकर कहा था कि चुनाव आयोग को अनिवार्य रूप से संवैधानिक ढांचे और कानून के दायरे में काम करना होगा.
क्योंकि वह चुनाव प्रक्रिया में अपनी स्वतंत्र व निष्पक्ष भूमिका सुनिश्चित नहीं करता तो इससे कानून का शासन ही चरमरा सकता है, जो कि लोकतंत्र का आधार है. लोकतंत्र नाजुक है और कानून के शासन का दिखावा इसके लिए हानिकारक हो सकता है.
पीठ ने राय दी थी कि संसद को मुख्य चुनाव आयुक्त व अन्य चुनाव आयुक्तों की नियुक्ति के संबंध में उपयुक्त कानून बनाना चाहिए. लेकिन मोदी सरकार ने यह राय ‘मानते’ हुए 2024 में इस बाबत कानून बनाया तो पीठ द्वारा नियुक्ति के लिए प्रस्तावित तीन सदस्यीय समिति में भारत के मुख्य न्यायाधीश के बजाय एक केंद्रीय मंत्री को शामिल करने का प्रावधान कर दिया. इससे समिति में सरकार के दो सदस्य (प्रधानमंत्री और एक कैबिनेट मंत्री) हो गए, जबकि लोकसभा में प्रतिपक्ष के नेता के तौर पर विपक्ष का महज एक निरावलंब, कहना चाहिए सर्वथा अशक्त, सदस्य रह गया.
दूसरे शब्दों में कहें, तो इससे समिति में सत्ता पक्ष का बहुमत हो गया और वह ‘जो भी चाहे, करे’ की स्थिति में आ गई, जबकि विपक्ष के पास उसे ऐसी किसी मनमानी से रोकने की शक्ति ही नहीं रह गई.
नया चुनाव आयोग!
अब मोदी सरकार अपने प्रति निष्ठावान किसी भी व्यक्ति को मुख्य चुनाव आयुक्त व चुनाव आयुक्त बना सकती है. सवाल है कि क्या यह स्थिति इन आयुक्तों को सरकार व सत्तादल का मुखापेक्षी बनाने वाली नहीं है? अगर नहीं तो आज की तारीख में चुनाव आयोग नरेंद्र मोदी के ‘नए भारत’ का ‘नया चुनाव’ आयोग क्योंकर बन गया है और विपक्ष को धमकाने के अंदाज में उसे यह जताते हुए भी शर्म क्यों नहीं आती है कि वह नया चुनाव आयोग है?
महाराष्ट्र के गत विधानसभा चुनाव में छोटी-सी अवधि में मतदाताओं की संख्या में सत्तारूढ़ दल के लिए मुफीद अप्रत्याशित वृद्धि को लेकर लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी द्वारा संसद के अंदर व बाहर घेरे जाने के बाद क्यों उसने विधानसभा चुनाव की देहरी पर खड़े बिहार में नए सिरे से मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण के लिए ऐसे मानदंड निर्धारित किए हैं, जिनसे केवल भारतीय जनता पार्टी आश्वस्त है, जबकि सारी विपक्षी पार्टियां आशंकित हैं.
ये पार्टियां कहती हैं कि महाराष्ट्र में (फर्जी) मतदाताओं की संख्या बढ़ाकर भाजपाई खेमे को लाभ पहुंचाने की उसकी कवायद की पोल खुल गई है तो बिहार में वह मतदाताओं की संख्या को अपेक्षित स्तर तक ‘घटाकर’ उसे उपकृत करने के फेर में है. अन्यथा वह विपक्षी दलों की राय लिए बिना खासी हड़बड़ी में मनमाने ढंग से मतदाता सूची को नए सिरे से बनाने का काम क्यों शुरू करता और उसमें नाम सुनिश्चित करने की कसौटी इतनी कड़ी क्यों कर देता कि अनेक मतदाता, मतदाता सूची से अपना नाम काट दिए जाने का खतरा महसूस करने लगें?
कीचड़ से कीचड़ धोना
सवाल है कि इस तरह अपने कीचड़ सने हाथों को कीचड़ से धोने से आयोग को क्या हासिल होगा? इससे वह सिर्फ यही तो सिद्ध करेगा कि मुख्य निर्वाचन आयुक्त व अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति का सर्वोच्च न्यायालय के 2 मार्च, 2023 के निर्णय के अनुसार होना सुनिश्चित नहीं किया गया तो केंद्र में सत्तारूढ़ दल द्वारा अपने राजनीतिक हितों के हिसाब से नियुक्त इन आयुक्तों के करतब चुनाव प्रक्रिया की पवित्रता से खिलवाड़ करके हमारे संसदीय लोकतंत्र का भविष्य खतरे में डालते रहेंगे.
ऐसे क्यों न मान लिया जाए कि अब चुनाव आयोग की स्थिति भी प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) और केंद्रीय जांच ब्यूरो (सीबीआई) जैसी हो गई है और इसीलिए वह भी पिंजरे के तोते की तरह सत्ता दल के लाभ के लिए एक के बाद दूसरा निर्णय ले रहा है?
अगर हां तो उसे उस दिन से डरना चाहिए, जब उसके इन कृत्यों के कारण मतदाताओं का उसकी निष्पक्षता व स्वतंत्रता पर ही नहीं, चुनाव नतीजों पर विश्वास भी न्यूनतम हो जाएगा. तब वे उसके उठाए हर कदम को संदेह की दृष्टि से देखेंगे. ज्यादातर कदमों को अभी भी देखते हैं.
दुर्भाग्य से, गत दस जुलाई को सर्वोच्च न्यायालय ने चुनाव आयोग को मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण में मतदाताओं की पहचान के लिए आधार कार्ड, फोटोशुदा वोटर कार्ड और राशनकार्ड जैसे सुलभ प्रमाणों को स्वीकारने का परामर्श दिया तो उसे लेकर भी आयोग ने उत्साह नहीं दिखाया. उसके पास न्यायालय के इस सवाल का भी कोई जवाब नहीं था कि वह मतदाता सूची के विशेष पुनरीक्षण में नागरिकता के मुद्दे को क्यों उठा रहा है, जबकि यह गृह मंत्रालय का अधिकार क्षेत्र है. अब अपने जवाबी हलफनामे में उसने कहा कि उसे नागरिकता जांचने का अधिकार है साथ ही कोर्ट की सलाह से भी इनकार कर दिया. उसका यह रवैया भी उसके प्रति संदेहों को घटाता नहीं, बढ़ाता ही है.
Source: The Wire