जो मसला ईमानदार राजनीतिक पहल और राजनीतिक प्रक्रिया से हल हो सकता था या है, उसे जानबूझकर—‘दिल्ली दरबार’ को राजनीतिक/चुनावी फ़ायदा पहुंचाने के इरादे से विध्वंसकारी सैनिक कार्रवाई में बदल दिया गया है।

भारत के हिस्से वाले कश्मीर (जम्मू-कश्मीर) में भारतीय सेना ऐसा अंतहीन, रक्तरंजित, निरर्थक युद्ध लड़ रही है, जिसे वह कभी नहीं जीत सकती। कश्मीर जंग अपने ही लोगों के ख़िलाफ़—कश्मीरियों के ख़िलाफ़—लड़ी जा रही है, और इसमें सेना की जीत नामुमकिन है। सेना ऐसी हारी हुई लड़ाई लड़ रही है, जिसने कश्मीर का शेष भारत से अलगाव पक्का कर दिया है।

जो मसला ईमानदार राजनीतिक पहल और राजनीतिक प्रक्रिया से हल हो सकता था या है, उसे जानबूझकर—‘दिल्ली दरबार’ को राजनीतिक/चुनावी फ़ायदा पहुंचाने और सेना के आला अफ़सरों को मेडल-इनाम-तरक़्क़ी-ऊंची हैसियत दिलाने के इरादे से—विध्वंसकारी सैनिक कार्रवाई में बदल दिया गया है। कश्मीर हिंदुत्व फ़ासीवादी एजेंडा को लागू करने की प्रयोगशाला बन गया है।

कश्मीर जंग की स्थिति यह है कि 34 साल से—1990 से—उग्रवाद-विरोधी अभियान (counter insurgency operation) और आतंकवाद-विरोधी अभियान (counter terrorism operation) चलाने के बावजूद कश्मीर में पहल सेना के हाथ में नहीं है। पहल पूरी तरह हथियारबंद विद्रोहियों (मिलिटेंट) के हाथ में है। वे जब चाहें, जहां चाहें, सेना के काफ़िले पर घात लगाकर हमला कर देते हैं, और सेना को पहले से कुछ पता नहीं चलता। हमले का टार्गेट, समय और जगह- विद्रोही तय करते हैं।

सेना ने मान लिया है कि उसे स्थानीय जनता से हथियारबंद विद्रोहियों के बारे में कोई ख़ुफ़िया जानकारी नहीं मिलती। स्थानीय जनता के बीच हथियारबंद विद्रोहियों का अच्छा-ख़ासा आधार और समर्थन है। तभी वे टिके हुए हैं।

जुलाई 2024 में कश्मीर में सेना के काफ़िलों पर हथियारबंद विद्रोहियों ने घात लगा कर चार बार हमला किया। इन हमलों में 12 फ़ौजी मारे गये। इन हमलों को इसी संदर्भ में देखा जाना चाहिए—सेना को इनके बारे में पूर्वानुमान नहीं था, और उसे अचानक घेर लिया गया। पहल पूरी तरह हथियारबंद विद्रोहियों के हाथ में थी।

कश्मीर में ‘उग्रवाद और आतंकवाद का सफ़ाया करने’ के नाम पर भारतीय सेना का हिंसक अभियान 1990 में शुरू हुआ। इसे केंद्र सरकार की हरी झंडी मिली थी। सरकार ने कश्मीर में सेना को पूरी छूट दे दी थी। तब से लेकर 2024 तक 34 साल बीत चुके हैं। इस हिंसक अभियान—कश्मीर जंग—के क्या नतीज़े निकले? यह अभियान कब और कहां जाकर थमेगा? इन 34 सालों का हासिल क्या है?

इन 34 सालों में कश्मीर में हज़ारों-हज़ार लोग मारे गये। इनमें नागरिक, हथियारबंद विद्रोही और सुरक्षाकर्मी सभी शामिल हैं। (सुरक्षाकर्मी में सेना के फ़ौजी और अर्द्ध सैनिक बलों व जम्मू-कश्मीर पुलिस के जवान शामिल हैं।)

कश्मीर पर निगाह रखनेवाले राजनीतिक और सैनिक विश्लेषकों का अनुमान है कि इन 34 सालों में क़रीब 7000 (सात हज़ार) सुरक्षाकर्मी मारे जा चुके हैं।

जहां तक कश्मीर में मारे गए नागरिकों और हथियारबंद विद्रोहियों की संख्या का सवाल है, वह दसियों-बीसियों हज़ार में है। आठ से दस हज़ार के बीच नौजवान कश्मीरियों को लापता कर दिया गया है—सेना ने उन्हें उनके घरों से ज़बरन उठा लिया और फिर वे लौट कर नहीं आये।

23 जुलाई 2024 को संसद (राज्यसभा) में एक सवाल के जवाब में गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि 2019 में अनुच्छेद 370 के हटने के बाद से अब तक कश्मीर में सुरक्षा बलों ने क़रीब 900 ‘आतंकवादियों’ को मार डाला है। उन्होंने यह भी बताया कि पिछले कुछ दिनों में 28 ‘आतंकवादी’ मार डाले गए हैं।

इन 34 सालों में कश्मीर में बहुत बड़े पैमाने पर विनाश, विध्वंस और तबाही हुई है। वह ‘दुनिया की सबसे बड़ी खुली जेल’ और सैनिक राज्य (Garrisson state) में तब्दील हो चुका है। भारतीय सेना अगर चाहे तो इसे वह अपनी कश्मीर जंग की क़ामयाबी मान सकती है!

 

Source: News Click