जब मैं उच्च शिक्षा हासिल करने के लिए दिल्ली आई, तो मेरे परिवार और दोस्त बहुत चिंतित थे। वे अक्सर अपना डर व्यक्त करते हुए कहते थे, “दिल्ली? वह तो बलात्कार की राजधानी है। महिलाएं वहां बहुत असुरक्षित हैं। तुम कैसे मैनेज कर रही हो? सावधान रहो, बहुत ज़्यादा बाहर मत जाया करो, और 6 बजे से पहले घर वापस आने की कोशिश किया करो।” एक दशक से ज़्यादा समय बीतने के बाद भी, महिलाओं के लिए दिल्ली को एक ख़तरनाक जगह के रूप में देखने की धारणा में कोई बदलाव नहीं आया है। हालांकि, एक महत्वपूर्ण बदलाव जरूर हुआ है, वह यह की अब परिवार और दोस्त, दूसरों की तरह, यह मानने लगे हैं कि बलात्कार कहीं भी हो सकता है – फिर चाहे दिल्ली, हैदराबाद, कोलकाता या बैंगलोर ही क्यों न हो। हक़ीक़त यह है कि कोई भी जगह महिलाओं के लिए पूरी तरह सुरक्षित नहीं है।
2012 में हाई-प्रोफाइल निर्भया गैंगरेप केस और उसके बाद सुधार के वादों के बावजूद, भारत में स्थिति में कोई खास सुधार नहीं हुआ है। कोलकाता की एक इंटर्न डॉक्टर के साथ हाल ही में हुए भयानक बलात्कार और हत्या ने एक बार फिर देश को झकझोर दिया है, जिससे हमारी गतिहीनता और कोई कार्रवाई न करने की स्थिति का पर्दाफ़ाश हुआ है।
विरोध प्रदर्शनों, मोमबत्ती जलाने और सोशल मीडिया अभियानों की एक लहर के बाद, जब शोर कम होता है, तो अक्सर ध्यान इस बात से हट जाता है कि उसके बाद क्या होता है। इसके बाद पीड़ित परिवार का क्या होता है? नौकरशाही के चक्रव्यूह में फंसकर यह साबित करना उनके लिए कितना कष्टदायक रहा होगा कि उनकी बेटियों के साथ क्रूरता से बलात्कार किया गया और उनकी हत्या कर दी गई? क्या हम वास्तव में उन परिवारों की पीड़ा को समझते हैं, जो अदालती कार्रवाही का सामना करते हैं, पुलिस से निपटते हैं, आरोप-पत्रों को देखते हैं और बार-बार अपने दुख को दोहराते हैं? जो माता-पिता कभी अपनी बेटियों की भविष्य की उपलब्धियों के बारे में गर्व से बात करते थे, अब वे खुद को अपनी बेटी के बेजान शरीर के साथ जूझते हुए पाते हैं, मदद के लिए रोते हुए गुहार लगाते हैं।
बलात्कार का व्यापक मुद्दा और भारत में इसकी सांस्कृतिक स्वीकृति – कमरे में मौजूद हाथी को संबोधित करने जैसा है जोकि महत्वपूर्ण है। हमारी चर्चाएं अक्सर मूल मुद्दे को अनदेखा कर देती हैं; बलात्कार के मामले केवल आंकड़े नहीं हैं, बल्कि एक गहरी सांस्कृतिक समस्या को दर्शाते हैं। बलात्कार के विभिन्न रूप होते हैं, जैसे कि वैवाहिक बलात्कार, जिसे अक्सर अनदेखा कर दिया जाता है। इसके अतिरिक्त, बलात्कार के मामलों की रिपोर्टिंग संदर्भ के आधार पर काफी भिन्न होती है – यानी शहरी बनाम ग्रामीण, दंगों के दौरान, या जम्मू और कश्मीर और मणिपुर जैसे क्षेत्रों में हुए बलात्कार के संदर्भ।
मथुरा (1972), रमीजा (1978) और माया त्यागी (1980) जैसे मामलों में हिरासत में बलात्कार भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा बना हुआ है। इसके अलावा, दलितों और आदिवासियों सहित वंचित समूहों को हिंसा के परेशान करने वाले पैटर्न का सामना करना पड़ता है, गुजरात में बिलकिस बानो जैसे हाई-प्रोफाइल मामलों ने एक व्यापक प्रणालीगत मुद्दे को उजागर किया है जो अक्सर आम चर्चाओं में खो जाता है।
समस्या यौन हिंसा को बढ़ावा देने वाली चीज़ों के बारे में सरल दृष्टिकोण में निहित है, साथ ही पीड़ित होने की धारणाओं और पितृसत्ता और सिसजेंडर-विषमलैंगिकता की व्यवस्थाओं में है जो लिंग आधारित हिंसा को बढ़ावा देती हैं। हाशिए पर पड़ी महिलाओं, ट्रांस व्यक्तियों और उन लोगों के लिए जो ‘आदर्श’ सर्वाइवर स्टीरियोटाइप के अनुरूप नहीं हैं, वहां बिना किसी डर के अपराध करना, चुनिंदा आक्रोश और पीड़ित को दोषी ठहराने की संस्कृति कायम है।
न्याय पर चर्चा उस व्यापक संस्कृति को संबोधित किए बिना नहीं की जा सकती जो हिंसा को सामान्य बनाती है और उसे स्वीकार करती है। याद रखे कि, सामाजिक मानदंड यानी स्वीकार्य व्यवहार को निर्देशित करने वाले अलिखित नियम – हिंसा को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। पितृसत्तात्मक मानदंड उन लोगों द्वारा बनाए रखे जाते हैं जो उनके द्वारा उत्पन्न दृष्टिकोण और व्यवहार से लाभान्वित होते हैं। ये मानदंड तय करते हैं कि कौन से सर्वाइवर और अपराधी अपने भाग्य में जो लिखा है उसके ‘योग्य’ माने जाते हैं, जिससे अन्याय का चक्र मजबूत होता है।
शिक्षित व्यक्तियों और राजनीतिक नेताओं सहित कई लोग महिलाओं को उनके दुर्भाग्य के लिए दोषी ठहराते हैं, जैसे कि खुले कपड़े पहनना, पुरुषों के साथ खुलकर बातचीत करना या देर तक घर से बाहर रहना। फिर भी, उन मामलों के बारे में क्या जहां एक महिला शालीन कपड़े पहनती है और जल्दी घर लौटती है, फिर भी उसे बलात्कार का शिकार होना पड़ता है? हम उस स्थिति को कैसे नज़रअंदाज़ कर सकते हैं जहां बलात्कार पीड़िता को शिकायत दर्ज कराने की कोशिश करते समय अधिकारियों द्वारा शर्म और उपेक्षा का सामना करना पड़ता है? भारत में पीड़िता को दोषी ठहराना अपराधियों को और अधिक औचित्य प्रदान करता है।
भारतीय सिनेमा में महिलाओं का वस्तुकरण और यौनिकरण इस हद तक सामान्य हो गया है कि ऐसी फ़िल्म मिलना मुश्किल है जिसमें कोई कामुक आइटम नंबर न हो या महिला मुख्य भूमिका में अंग प्रदर्शन करने वाले कपड़े न हों। महिलाओं को अक्सर इच्छा के प्रतीक तक सीमित कर दिया जाता है, उनकी भूमिकाएं उनके शारीरिक आकर्षण और कामुकता तक सीमित होती हैं। महिलाओं का इस किस्म का चित्रण बताता है कि एक महिला का मूल्य उसकी सुंदरता और पुरुषों का ध्यान आकर्षित करने की क्षमता से जुड़ा हुआ है, जिससे उसका मूल्य कम होता है और लैंगिक रूढ़िवादिता को बल मिलता है। कबीर सिंह और एनिमल जैसी फ़िल्में बॉक्स ऑफ़िस पर सफल होती हैं क्योंकि उनका ध्यान महिलाओं के अधीनता और पुरुषवादी लोगों के सामने उनकी विनम्रता पर केंद्रित होता है।
महिलाओं के प्रति घृणा का आंतरिककरण, जहां महिलाएं एक-दूसरे को नीचा दिखाती हैं, बलात्कार की संस्कृति को बनाए रखने में महत्वपूर्ण योगदान देता है। जब महिलाएं एक-दूसरे को नीचा दिखाती हैं या कमतर आंकती हैं, तो वे नकारात्मक रूढ़ियों और लैंगिक भेदभावपूर्ण दृष्टिकोण को मजबूत करती हैं जो लिंग आधारित हिंसा को सामान्य और तुच्छ बना देती हैं।
सोशल मीडिया पर सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा करना, पेशेवर उपलब्धियों को कम आंकना, रियलिटी टीवी पर नकारात्मक चित्रण और सामुदायिक गपशप बलात्कार की संस्कृति को बनाए रखने में योगदान करते हैं। यह व्यवहार हानिकारक रूढ़ियों और सामाजिक मानदंडों को मजबूत करता है जो महिलाओं का अवमूल्यन करते हैं, जिससे ऐसा माहौल बनता है जहां महिलाओं के खिलाफ हिंसा को अधिक आसानी से स्वीकार किया जाता है और माफ किया जाता है।
जातिगत गतिशीलता भारत में जीवन के कई पहलुओं को भी गहराई से प्रभावित करती है, खासकर ग्रामीण और आदिवासी क्षेत्रों में याह काफी है। यौन हिंसा के मामलों में, जाति-आधारित प्रतिद्वंद्विता और धार्मिक तनाव अक्सर इन कृत्यों के पीछे की प्रेरणा को प्रेरित करते हैं। दलित महिलाएं विशेष रूप से असुरक्षित हैं, उनके शरीर अक्सर हिंसा का निशाना बनते हैं। कई दलित लड़कियों के लिए, अत्यधिक हिंसा मुख्य रूप से यौन हिंसा के रूप में प्रकट होती है।
समाजशास्त्री संजय श्रीवास्तव बताते हैं कि, “बलात्कार मूल रूप से ताक़त/सत्ता का मामला है। जब उच्च जाति के पुरुष दलित महिलाओं का बलात्कार करते हैं, तो यह उनकी ताक़त और प्रभुत्व का प्रदर्शन होता है। इस कृत्य का यह भी अर्थ है कि दलित पुरुष अपनी महिलाओं की रक्षा करने में असमर्थ हैं, जिससे पुरुषों के बीच बलात्कार प्रतिस्पर्धा का एक रूप बन जाता है” (2018)।
आदिवासी महिलाओं को गरीबी, वंचित होने के कारण और सामाजिक रूढ़ियों के कारण हिंसा का सामना करना पड़ता है। संसाधनों के दोहन, बेदखली और मणिपुर, ओडिशा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना और पश्चिम बंगाल जैसे संघर्ष वाले इलाकों में सैन्य उपस्थिति में वृद्धि के कारण उनकी स्थिति और भी खराब हो गई है।
न्याय की तलाश में कई तरह की बाधाएं आती हैं: कुछ में एफआईआर दर्ज नहीं की जाती हैं, खासकर जब तब अपराधी पुलिस या सुरक्षा अधिकारी होते हैं, और जहां एफआईआर दर्ज की जाती हैं, वहां एक साल तक की देरी होती है, जैसा कि 2024 की एक समाचार रिपोर्ट में बताया गया है। कार्रवाई को गति देने के लिए कार्यकर्ताओं को अक्सर हस्तक्षेप करना पड़ता है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा दो-उंगली जांच पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद, बलात्कार पीड़ितों में से लगभग आधे अभी भी इसे झेलते हैं, और कई को देरी या चिकित्सा जांच की कमी का सामना करना पड़ता है, जिससे फोरेंसिक सबूत खो जाते हैं और पुलिस सहायता अपर्याप्त होती है। कुछ बलात्कार के मामले अपने स्थान के कारण लोगों का ध्यान आकर्षित करते हैं, जबकि कई दूरदराज के आदिवासी और ग्रामीण इलाकों में नियमित यौन हिंसा होती है जिन पर किसी का ध्यान नहीं जाता है। इससे यह सवाल उठता है कि क्या सक्रियता चुनिंदा मामलों पर केंद्रित है, जिससे वंचित इलाकों में कई महिलाओं को न्याय नहीं मिल पाता है।
बलात्कार के मामलों में कानूनी खामियां अक्सर न्याय प्रणाली की प्रभावशीलता को कमज़ोर करती हैं, जिससे यौन हिंसा को बढ़ावा मिलता है। सहमति की अपर्याप्त परिभाषा, कम दोषसिद्धि दर, बरी होने की ऊंची दर और जमानत, फोरेंसिक जांच में देरी और अपर्याप्त पीड़ित सुरक्षा जैसे मुद्दे अपराधियों को जवाबदेही से बचने का कारण बन सकते हैं। उदाहरण के लिए, एफआईआर दर्ज करने या तत्काल चिकित्सा जांच जैसे कानूनी सुरक्षा उपायों के सख्त कार्यान्वयन की कमी से सबूत खो सकते हैं और अभियोजन की संभावना कम हो सकती है।
प्रक्रियागत देरी और प्रशासनिक अक्षमता नौकरशाही की अक्षमता पीड़ितों को न्याय पाने से हतोत्साहित करती है, जिससे एक ऐसा चक्र चलता रहता है जिसमें अपराधियों को बहुत कम या कोई परिणाम नहीं भुगतना पड़ता, जिससे आगे और अपराध करने को बढ़ावा मिलता है। बलात्कारियों को नायक के रूप में माला पहनाने और उनका जश्न मनाने की परेशान करने वाली प्रथा यौन हिंसा से निपटने के प्रयासों को कमजोर करती है। अपराधियों का यह महिमामंडन एक खतरनाक माहौल बनाता है जहां न्याय बाधित होता है, जिससे बलात्कार के नए मामलों को संबोधित करना और रोकना मुश्किल होता जा रहा है।
इस मुद्दे को प्रभावी ढंग से संबोधित करने के लिए, हमें बलात्कार की सांस्कृतिक स्वीकृति को चुनौती देनी होगी। समय की सबसे बड़ी मांग यह है कि राष्ट्र को काली, दुर्गा, लक्ष्मी और सरस्वती जैसी प्रतीकात्मक देवियों के प्रतिनिधित्व से आगे बढ़ना होगा और इसके बजाय वास्तविक सम्मान और समानता हासिल करनी होगी।
Source: News Click