किसी भी आम भारतीय को इस भुलावे में नहीं रहना चाहिए कि जीडीपी के लिहाज से उसके देश की अर्थव्यवस्था के बड़े होते आकार का दुखों से निजात के उसके प्रयत्नों से कोई सीधा संबंध है. संसाधनों व अवसरों के समान वितरण के रास्ते की बढ़ती समस्याओं के रहते ऐसा मुमकिन ही नहीं है.

 

अर्थव्यवस्थाओं के विभिन्न पहलुओं का विश्लेषण यों भी बहुत मुश्किल और पेंचीदा काम होता है- आंकड़े जुटाने और इस्तेमाल करने की प्रक्रियाओं (जो कभी-कभी ही निर्दोष होती हैं) के अधीन होने के कारण.

जानकार बताते हैं कि जैसे एक लिपि में नुक्ते के हेर-फेर से खुदा जुदा हो जाता है, वैसे ही आंकड़ों के महारथी उनके इस्तेमाल के तरीकों में फेरबदल की जरा-सी कवायद से अर्थव्यवस्थाओं के सब्ज बागों को पीला और फिर कंचन करार दे सकते हैं.

इसीलिए पिछले दिनों अपने देश की अर्थव्यवस्था के बारे में अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष के आंकड़ों के हवाले से दावा किया गया कि उसने ब्रिटेन के बाद जापान को भी पीछे छोड़ दिया और दुनिया की चौथी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन गई है, तो कई महानुभावों को ख़ासे गर्वोन्मत्त होते देखकर भी मुझ नाचीज़ को एक पल को भी नहीं लगा कि मैं उसके साथ ज्यादा देर तक खुश रह सकता हूं.

कारण यह कि मैं अपने अनुभवों से जानता हूं कि ‘बड़ों’ की होकर रह गई इस दुनिया में जितनी भी ‘बड़ी’ चीजें हैं, ‘बड़ों’ के ही इंगित पर चला व रुका करती हैं. फिर ‘बड़ी’ अर्थव्यवस्था ही क्योंकर इस नियम का अपवाद सिद्ध होने और आम लोगों को उसमें अपना न्यायोचित हिस्सा लेने देने के लिए ‘बड़ों’ की मुट्ठी में बंद होने से मना करने लगी?

लेकिन क्या अर्थव्यवस्था के पेंचोखम से नावाकिफ और आमतौर पर आम कहलाने वाले लोग इस बात को समझते हैं?

इसे लेकर संदेहों व अंदेशों में डूबते-उतराते हुए कई बार मुझे लगता था कि बेबसी में अंततः वे भी उन्मत्तों से प्रभावित होकर उनकी जमात में शामिल हो जाएंगे. लेकिन मैं चकित होकर रह गया, जब देश के सरकारी राशन के अस्सी करोड़ लाभार्थियों में शामिल मेरे एक पड़ोसी ने इस बाबत मुझे कुछ इस तरह समझाया कि मेरी आंखें फटी की फटी रह गईं.

दावा असंदिग्ध नहीं, फिर भी

लेकिन पड़ोसी की बात पर आने से पहले उक्त दावे की बाबत कुछ बातें जान लेते हैं.

इसके अनुसार अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने अप्रैल, 2025 में जो विश्व आर्थिक परिदृश्य रिपोर्ट जारी की, उसमें कहा गया है कि भारत की जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 4.187 लाख करोड़ डॉलर तक पहुंच गई है, जो जापान की अनुमानित 4.186 लाख करोड़ डॉलर की जीडीपी से अधिक है. कोष तथा कई अन्य वैश्विक एजेंसियों का अनुमान है कि भारत की अर्थव्यवस्था इसी रफ्तार से बढ़ती रही तो वह 2028 तक जर्मनी को भी पीछे छोड़कर तीसरे स्थान पर पहुंच जाएगी. 2027 तक इसकी जीडीपी के 5 लाख करोड़ डॉलर और 2028 तक 5.58 करोड़ डॉलर तक पहुंच जाने का भी अनुमान है.

प्रसंगवश, दुनिया की शीर्ष दस अर्थव्यवस्थाओं में अमेरिका 30.507 लाख करोड़ डॉलर की जीडीपी के साथ पहले और चीन 19.231 लाख करोड़ डॉलर की जीडीपी के साथ दूसरे स्थान पर है. जर्मनी 4.744 लाख करोड़ डॉलर की जीडीपी के साथ तीसरे व भारत 4.187 लाख करोड़ डॉलर की जीडीपी के साथ चौथे स्थान पर है.

पांचवें स्थान पर जापान की जीडीपी 4.186 लाख करोड़ डॉलर, छठे स्थान पर इंग्लैंड की 3.839 लाख करोड़ डॉलर, सातवें पर फ्रांस की 3.211 लाख करोड़ डॉलर, आठवें पर इटली की 2.422 लाख करोड़ डॉलर, नवें पर कनाडा की 2.225 लाख करोड़ डॉलर तथा दसवें स्थान पर ब्राजील की जीडीपी 2.125 लाख करोड़ डॉलर है.

बहरहाल, मैंने पड़ोसी से पूछा कि क्या इस ‘उपलब्धि’ से भारत के लोगों का सीना गर्व से फूल जाना स्वाभाविक नहीं है, तो उनका जवाब था:

जो लोग ‘कौआ कान ले गया’ सुनकर अपने कान टटोलने के बजाय कौए के पीछे दौड़ पड़ते हैं, वे तो मुदित हैं ही. इसके बावजूद कि देश के कई अर्थशास्त्री इस ‘उपलब्धि’ से जुड़े अनुमानों और उन पर आधारित दावों पर यकीन नहीं कर रहे.

पड़ोसी ने बताया कि, और तो और, प्रसिद्ध भारतीय अर्थशास्त्री प्रोफेसर अरुण कुमार के अनुसार भी भारत की अर्थव्यवस्था के जापान को पीछे छोड़ देने का दावा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के 2025 के अनुमानों से ही नहीं, ऑपरेशन सिंदूर के बाद नरेंद्र मोदी सरकार की मलिन हो गई छवि को चमकाने की कवायद से भी जुड़ा हुआ है?

प्रोफेसर अरुण कुमार ने लिखा है कि इन अनुमानों को मान लें तो भी भारत की जीडीपी जापान से 0.014 फीसदी के मामूली अंतर से ही आगे निकल सकती है. तिस पर इस मामले में भारत के अपने जीडीपी डेटा की संदिग्धता की भी उपेक्षा नहीं की जा सकती. भारत में नोटबंदी के बाद से जीडीपी को मापने का तरीका ही गलत हो गया है, जिसके चलते न केवल जीडीपी डेटा में गलतियां हैं, बल्कि इसकी वृद्धि दर, निवेश और खपत के डेटा भी गड़बड़ हैं. इन गड़बड़ियों को हटाकर देखें तो भारत चौथी तो छोड़िए, दुनिया की पांचवीं सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था भी नहीं बना है.

इतना बताने के बाद पड़ोसी ने एक सवाल पूछा.

सवाल, जिसे जवाब की दरकार

भारतवासी रमेश व सुरेश एक साथ, एक ही जगह पर, एक ही काम करते और एक ही मुहल्ले में रहते हैं. दोनों को पचास-पचास हजार रुपये मासिक वेतन मिलता है. दोनों में से किसी के भी पास कोई पैतृक संपत्ति नहीं है और उनके वेतन से ही उनके परिवारों की गुजर-बसर होती है. रमेश के परिवार में पत्नी, बेटे-बेटियों, बहुओें और बच्चों व बच्चियों समेत कुल 20 लोग हैं, जबकि सुरेश के परिवार में महज पति-पत्नी.

ऐसे में क्या समान वेतन के बावजूद दोनों के परिवारों के रहन-सहन का स्तर समान और रमेश का परिवार सुरेश के परिवार जितना ख़ुश या सुखी हो सकता है?

मैं उनकी समझदारी पर चकित होकर चुपचाप उनका मुंह ही देखता रहा तो उन्होंने खुद ही जवाब दिया- नहीं हो सकता. फिर पूछा: तब क्यों हमसे कहा जा रहा है कि देश की अर्थव्यवस्था के जीडीपी के लिहाज से ब्रिटेन या जापान को पीछे छोड़ देने को लेकर मुदित हो जाएं और यह न पूछें कि उसकी इस छलांग में कितना हिस्सा हम मरभुक्खों का है और कितना बिग बॉसों का!

पड़ोसी के इस ‘दो टूक’ के भाष्य के लिए मैंने एक जानकार की शरण ली तो उन्होंने मुझे बात को भारत व ब्रिटेन के उदाहरण से समझाया:

भारत की जीडीपी 4.187 लाख करोड़ डॉलर है और वह दुनिया में चौथे स्थान पर है, जबकि ब्रिटेन की जीडीपी 3.839 करोड़ डॉलर है और वह छठे स्थान पर है. इस हिसाब से भारत में आम भारतीयों के लिए ब्रिटेन के आम लोगों से कई गुने बेहतर गलीचे बिछे होने चाहिए थे. लेकिन ऐसा नहीं है और ब्रिटेन में प्रति व्यक्ति आय भारत से 20 गुनी अधिक है. कारण यह कि भारत की आबादी 146 करोड़ है, जबकि ब्रिटेन की मात्र 6.72 करोड़. भारत में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 2,880 डॉलर है, जबकि ब्रिटेन में 54,950 डॉलर.

बड़ी जनसंख्या वाले चीन के संदर्भ में देखें तो उसकी जीडीपी 19.231 लाख करोड़ डॉलर है और प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 13,690 डॉलर यानी चीन की प्रति व्यक्ति आय भी भारत से साढ़े चार गुनी है, जबकि कई कम जनसंख्या वाले देशों की जीडीपी भी भारत से कम होने के बावजूद उनकी प्रति व्यक्ति आय भारत की कई गुनी है.

फ्रांस में प्रति व्यक्ति वार्षिक आय 64,390 डॉलर, इटली में 41,090 डॉलर, कनाडा में 53,560 डॉलर और ब्राजील में 9,960 डॉलर है. स्वाभाविक ही इन देशों के आम लोगों का जीवनस्तर भारत के आम लोगों के जीवन स्तर से कई गुना बेहतर है. इन देशों की सूची को और लम्बी भी किया जा सकता है.

लेकिन जापान की ही बात करें, जिसे पछाड़ देने का बड़ा शोर मचाया जा रहा है, तो इस साल भारत की आबादी 146.4 करोड़ होने की उम्मीद है, जो जापान की 12.3 करोड़ की अनुमानित आबादी से 12 गुना ज्यादा होगी. इसलिए, साल के अंत में भारत की जीडीपी जापान के बराबर हो जाए, तो भी प्रति व्यक्ति आय जापान की तुलना में बारहवां हिस्सा ही होगी. यानी एक औसत जापानी एक औसत भारतीय से 12 गुना ज्यादा अमीर होगा.

इसलिए किसी भी आम भारतीय को इस भुलावे में नहीं रहना चाहिए कि जीडीपी के लिहाज से उसके देश की अर्थव्यवस्था के बड़े होते आकार का दुखों से निजात के उसके प्रयत्नों से कोई सीधा संबंध है. संसाधनों व अवसरों के समान वितरण के रास्ते की बढ़ती समस्याओं के रहते ऐसा मुमकिन ही नहीं है.

वैसे भी किसी देश की समृद्धि व संपन्नता उसकी अर्थव्यवस्था के बढ़ते आकार या जीडीपी की वृद्धि में उतनी परिलक्षित नहीं होती, जितनी प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि में. क्योंकि प्रति व्यक्ति आय से घटती असमानता में आम आदमी की स्वास्थ्य, शिक्षा व आवास आदि की सुविधाओं और अवसर की समानता में वृद्धि परिलक्षित होती है.

बढ़ती जीडीपी बनाम बढ़ती गैरबराबरी

लेकिन हमारे भारत में जब सरकार देश के चौथी बड़ी अर्थव्यवस्था बनने को लेकर हर भारतीय को गौरव महसूस कराने पर आमादा है, बढ़ती अर्थव्यवस्था में लगातार बढ़ती गैरबराबरी सारी समृद्धि व संपन्नता को अंदर ही अंदर खाये जा रही है.

ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत के शीर्ष एक प्रतिशत लोगों के पास देश की कुल संपत्ति का 51.53 प्रतिशत है और शीर्ष 10 प्रतिशत के पास कुल संपत्ति का 77.4 प्रतिशत. देश के सबसे अमीर नौ लोगों की कुल संपत्ति देश के नीचे की 50 प्रतिशत गरीब आबादी की संपत्ति से अधिक है.

उत्तर प्रदेश के वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक डॉ. राम बहादुर वर्मा के अनुसार देश में ई-श्रम पोर्टल पर पंजीकृत 27.69 करोड़ श्रमिकों में से 94% से अधिक की आय 10,000 रुपये या उससे कम है और 80% आबादी (120 करोड़ लोग) 10,000 रुपये प्रति माह से कम कमाती है.

अक्टूबर 22 में मनी-9 द्वारा कराए गए सर्वेक्षण के अनुसार देश के 46 प्रतिशत लोग हर महीने 15 हजार रुपये से कम पर काम करते हैं. दूसरी ओर देश में 80 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिन्हें सरकार गरीब मानती है और उन्हें मुफ्त खाद्यान्न वितरित करती है. देश की धन-संपदा चंद कॉरपोरेट घरानों की तिजोरियों में सिमट रही है और सिमटने की यह रफ्तार दिन-ब-दिन बढ़ रही है.

भूख के पैमाने पर 121 देशों में भारत 107 वें स्थान पर है, लैंगिक समानता में 127वें स्थान पर, प्रेस की स्वतंत्रता में 161वें स्थान पर, बौद्धिक संपदा में 55 देशों में 42वें स्थान पर तो भ्रष्टाचार के मामले में 107 देशों में 86वें स्थान पर है.

क्या इस ढर्रे के रहते अर्थव्यवस्था के चौथे स्थान पर पहुंचने से स्थिति में किंचित भी बदलाव आएगा?

डॉ. वर्मा बताते हैं कि जीडीपी का आकार अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों निर्माण, सेवा, कृषि, इत्यादि में सकारात्मक वृद्धि से बढ़ता है, पर हमारे देश की विडंबना यह है कि कारखानों एवं कंपनियों के लाभ का बड़ा हिस्सा कम्पनियों के मालिक हड़प लेते हैं और श्रमिकों को न्यूनतम वेतन पर गुजारा करना पड़ता है. यही कारण है कि एक ओर देश की जीडीपी बढ़ रही है और दूसरी ओर अमीरी व गरीबी का अंतर यानी गैरबराबरी भी. तिस पर तेजी से बढ़ती मंहगाई थोड़ी-सी आय की वृद्धि को भी बेकार कर दे रही है.

अकारण नहीं कि प्रोफेसर अरुण कुमार अपनी टिप्पणी में भारतीय अर्थव्यवस्था की इस उपलब्धि को ज्यादातर भारतीयों के लिए मृगतृष्णा भर बताते हैं.

विश्वगुरुत्व के लिए भी मुफीद नहीं

दूसरी ओर वरिष्ठ पत्रकार शीतल पी. सिंह की एक हालिया फेसबुक पोस्ट बताती है कि पांचवीं और चौथी अर्थव्यवस्था होने का ढोल पीटना हमारे सत्ताधीशों के विश्वगुरुत्व के लिए भी निरर्थक है. वे इसे न्यूजर्सी के नेवार्क हवाई अड्डे पर अमेरिकी अधिकारियों द्वारा एक युवा भारतीय से किए गए दुर्व्यवहार से जोड़ते हुए लिखते हैं:

अगर किसी जर्मन या फ्रांसीसी नागरिक के साथ अमेरिका में ऐसा हुआ होता, तो उनकी सरकारें अब तक अमेरिका की खाल उधेड़ चुकी होतीं. …इसलिए कि उन देशों को अपने नागरिकों की परवाह है, लेकिन (हमारे देश की) ऐसी सरकार से इसकी उम्मीद नहीं की जा सकती, जो लोगों को केवल ब्रेनवॉश करने और वोट हासिल करने के साधन के रूप में देखती है और सामने पड़ने पर ट्रंप के आगे भीगी बिल्ली बन जाती है!

अमेरिका प्रवासी भारतीयों के साथ जिस तरह का दुर्व्यवहार कर रहा है, जिस तरह से हथकड़ी बेड़ी लगाकर सैनिक जहाज़ में ठूस कर भारत भेज रहा है या लातिनी अमरीका की जेल में निर्वासित कर रहा है, वह ग़ुलामी के दिनों की नई नज़ीर है.

गौरतलब है कि यह जापान को पीछे छोड़ देने की हमारी बहुप्रचारित ‘चमत्कारिक आर्थिक उपलब्धि’ के बावजूद है. फिर भला क्या हासिल है इसका?

Source: The Wire