लोकतंत्र दुनिया भर में लुढ़क रहा है. तकनीक की नई शैलियां विकसित हो रही हैं. इससे पहले कि सर्वसत्तावाद हावी हो जाए, हमें बहुत तेज़ी से लोकतंत्र का नया संस्करण खोजना होगा जो मानव जीवन और मनुष्येत्तर जगत दोनों को समाहित कर सके. साहित्यिक सिद्धांतकार और भाषाविद गणेश देवी का लेख.

 

मेरे कई मित्र मुझसे कहते रहते हैं कि वे भूल गए हैं कि चैन की नींद किस चिड़िया का नाम है. भविष्य की अनिश्चितताओं से वे लगातार चिंतित रहते हैं- अंतरराष्ट्रीय नियामकों के पतन, प्रतिशोध के नाम पर हो रहे युद्ध, निर्दोष नागरिकों की बेपरवाह हत्या, राष्ट्राध्यक्षों के सनक भरे फैसले, विश्वविद्यालयों पर अंकुश, छात्रों के निष्कासन, जंगल की विनाशकारी आग, बड़े पैमाने पर आने वाली बाढ़, अप्रत्याशित तापमान, सोशल मीडिया का बहरा कर देने वाला शोर. इस तरह हर जगह डर व आतंक के प्रसार ने उन्हें परेशान कर रखा है.

कुछ लोग बताते हैं कि एक सदी पहले यानी 1920 के दशक के आसपास दुनिया बहुत अलहदा किस्म की हुआ करती थी. ऐसा कहते वक्त वे रूस की अक्टूबर क्रांति, भारत के स्वतंत्रता संग्राम, इंग्लैंड में बढ़ते उदारवाद और यूरोप के बाहर लोकतंत्र की अवधारणा के प्रसार को याद करते हैं. वे कहते हैं: अफसोस, सिर्फ़ एक सदी बाद प्रकृति और मानव के बीच सामंजस्य, राष्ट्रों के बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और लोकतंत्र की अवधारणा बड़ी तेजी से गायब होती जा रही है.

अतीत का मोह समझ का विस्तार तो नहीं करता लेकिन यह एक ताजादम सोच को तो प्रेरित कर ही सकता है. यह खबर पुरानी हो चुकी है कि लोकतंत्र शासन व्यवस्था के एक रूप में, दुनिया के अधिकांश हिस्सों में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर रहा.

 ‘द इकोनॉमिस्ट’ का हालिया वैश्विक लोकतंत्र सूचकांक बताता है कि 2024 में, 166 देशों में से केवल 25 देशों में रहने वाली विश्व की कुल आबादी का 6.6 प्रतिशत ही पूर्ण लोकतंत्र का लाभ उठा रहा है. 2006 में पहले वैश्विक लोकतंत्र सूचकांक ने 28 देशों को, जो विश्व की 13 प्रतिशत आबादी का प्रतिनिधित्व करते थे, ‘पूर्ण लोकतंत्र ‘ का दर्जा दिया था. दस साल बाद, 2016 में, इसमें तेज गिरावट दर्ज की गई, जिसमें 19 देश और विश्व की केवल 4.5 आबादी ही इस श्रेणी में थी.

‘द इकोनॉमिस्ट’ अपने परिणामों को 60 मापदंडों के आधार पर चार श्रेणियों में पेश करता है: ‘पूर्ण लोकतंत्र’, ‘दोषपूर्ण लोकतंत्र ‘, ‘मिलीजुली व्यवस्था’, और ‘सर्वसत्तावादी शासन’. पिछले दो दशकों में, विश्व के पांचवें हिस्से से भी कम देशों को पूर्ण लोकतांत्रिक देश के रूप में वर्णित किया गया है.

अब, 2025 में विश्व की शीर्ष 10 ‘बड़ी अर्थव्यवस्थाओं’ में से केवल तीन को स्पष्ट लोकतांत्रिक साख प्राप्त है. ये 10 बड़ी अर्थव्यवस्थाएं हैं: संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, चीन, जर्मनी, भारत, जापान, यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस, इटली, कनाडा और ब्राजील. इनमें से केवल तीन—जर्मनी, जापान और कनाडा—को लोकतंत्र सूचकांक में ‘पूर्ण लोकतंत्र’ की श्रेणी में शामिल किया गया है, छह देश—अमेरिका, भारत, फ्रांस, यूके, इटली और ब्राजील—को ‘दोषपूर्ण लोकतंत्र ‘ के रूप में दिखाया गया है, और चीन को ‘सर्वसत्तावादी शासन’ के रूप में चिह्नित किया गया है.

जब हम अर्थशास्त्र से समाजशास्त्र की ओर बढ़ते हैं, तो तस्वीर और भी निराशाजनक हो जाती है. द इकोनॉमिस्ट के मानकों के अनुसार, दस सबसे अधिक आबादी वाले देशों में, एक भी देश में ‘पूर्ण लोकतंत्र’ की मौजूदगी नहीं है. इनमें भारत, चीन, अमेरिका, इंडोनेशिया, पाकिस्तान, नाइजीरिया, ब्राजील, बांग्लादेश, रूस और इथियोपिया शामिल हैं.

देशों की इस सूची को विभिन्न अन्य विचारों, जैसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सरकारी निकायों में लिंग और नस्ल का अनुपात, सूचना तक पहुंच, संवैधानिक लोक व्यवहार, न्याय का निष्पक्ष वितरण और राजनीतिक वित्तपोषण में पारदर्शिता के आधार पर जांचा-परखा जा सकता है. लेकिन तब भी नतीजा वही निकलेगा. एक शासन व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र तेजी से कमजोर हो रहा है, भले ही यह पूरी तरह से अतीत की बात न बन गया हो. अधिकांश देशों में दरकती लोकतांत्रिक व्यवस्थाएं उनके नागरिकों को और अधिक चोट पहुंचाता है, सरकारों द्वारा बढ़ाई गई विशाल आय असमानताएं इसे और बदतर बनाती चलती हैं.

हालांकि, ‘लोकतंत्र’ शब्द का अर्थ क्षरित हो चुका है लेकिन यह अभी भी सार्वजनिक विमर्श में प्रचलित है. अधिकांश ‘दोषपूर्ण लोकतंत्र” या ‘हाइब्रिड सिस्टम’ अभी भी खुद को लोकतंत्र ही कहा जाना पसंद करते हैं. यहां तक कि सबसे खराब सर्वसत्तावादी शासन भी लोकतंत्र की अवधारणा को स्पष्ट रूप से नकारना पसंद नहीं करते.

प्रत्येक शासन जनता के पक्ष में और अपनी लोकतांत्रिक छवि को बढ़ावा देने के लिए अंतरराष्ट्रीय और देश के भीतर प्रचार पर सार्वजनिक व्यय का एक बड़ा हिस्सा खर्च करता है. इस प्रकार, भले ही लोकतंत्र एक शासन व्यवस्था के रूप में तेजी से नीचे की ओर जा रहा हो, यह अभी भी विश्व की राजनीतिक कल्पना को एक सार्वजनिक रूप से प्रशंसित विचार और हर प्रकार के राजनीतिक व्यवस्था के लिए वैधता प्राप्त करने के लिए एक आकर्षक शब्द के रूप में प्रभावित करता है.

इसके अलावा, कई देशों में अभी भी राजनीतिक दल हैं जो लोकतंत्र को पुनर्स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं. और लगभग हर जगह, नागरिक समाज संगठन सर्वसत्तावादी शासनों की लहर को पलट देने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. उदाहरण के लिए, अप्रैल के आखिरी सप्ताह में, लगभग 90 देशों के लोकतांत्रिक दलों ने हैदराबाद में एकत्र होकर आगे की राह पर विचार किया. पिछले 10 वर्षों में कई बार, दुनिया के कई हिस्सों में सर्वसत्तावादी शासनों के खिलाफ नागरिक समाज के बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन देखे गए हैं.

फिर भी, लोकतंत्र समर्थक नागरिक समाज समूहों, दलों और राष्ट्रों के बीच इस बात पर सहमति नहीं बन पाई है कि लोकतंत्र की अवधारणा को कैसे सुरक्षित रखा जाए. इस दिशा में हमें अतीत से बहुत कुछ सीखना है.

यूरोप में उत्तर-फासीवाद के वर्षों में, दार्शनिक बेनेदेतो क्रोचे (1866-1952) ने उदार विचारधारा का एक विकासवादी मॉडल प्रस्तावित किया. अपनी अंतिम पुस्तक ‘पॉलिटिक्स एंड मोरल्स’ (1945) में उन्होंने लोकतंत्र को एक गतिशील और विकसित होने वाली प्रणाली के रूप में पेश किया. मुसोलिनी के फासीवाद का दंश झेल चुके व्यक्ति की इस पुस्तक का हमारे समय में विशेष महत्व है.

अभी हाल ही में जॉन कीन द्वारा लोकतंत्र पर पेश किए गए अवलोकन क्रोचे की तर्क पद्धति का अनुसरण करते हैं. ऑस्ट्रेलियाई राजनीतिक विचारक कीन, संचार प्रौद्योगिकी और जलवायु आपातकाल के उतने ही बड़े विशेषज्ञ हैं जितने क्रोचे फासीवाद के थे. कीन की किताब ‘द शॉर्टेस्ट हिस्ट्री ऑफ डेमोक्रेसी’ (2022) प्राचीन सीरिया में शासन की विधि के रूप में ‘परामर्श’ के उद्भव से लेकर, ग्रीक और लैटिन इतिहास में इसके विभिन्न रूपों, लॉक और रूसो के समय से इसके आधुनिक रूपों, और हमारे वर्तमान समय तक की यात्रा का वर्णन करती है.

उनका यह आख्यान उस लंबी यात्रा के  उतार-चढ़ाव को दर्शाता है जिसे कीन मूलतः ‘लोकतंत्र’ कहते हैं. वे इसे तीन चरणों में विभाजित करते हैं: पहला, सभा आधारित लोकतंत्र जहां लोगों के बीच आमने-सामने परामर्श होता था; दूसरा है संसदीय लोकतंत्र वाला चरण, जिसमें निर्वाचित प्रतिनिधि बड़े समूहों के प्रतीक बनते हैं; और तीसरा है- निगरानी लोकतंत्र, जिसमें नागरिक स्थानीय से राष्ट्रीय स्तर तक कई स्तरों पर परामर्श में भाग लेते हैं. सभी राजनीतिक दार्शनिक और इतिहासकार कीन के इतिहास लेखन से सहमत नहीं होंगे. लेकिन वे, क्रोचे की तरह, हमें लोकतंत्र के वर्तमान जीर्ण-शीर्ण रूप से परे इसके भविष्य के रूप की कल्पना करने में सक्षम बनाते हैं.

कीन के एक अन्य तर्क के अनुसार, लोकतंत्र के भविष्य में एक विकल्प ‘कॉस्मोक्रेसी’ का हो सकता है.

कॉस्मोक्रेसी वास्तव में क्या हो सकती है और यह लोकतंत्र से कितनी अलग होगी? इसके बारे में कीन नहीं, बल्कि पोलिश राजनीतिक दार्शनिक हेनरिक स्कोलिमोव्स्की (1930-2018) तर्क देते हैं कि होमो सेपियन्स का प्रकृति से पूर्ण विच्छेदन हो चुका है. इसका समाधान यह है कि सत्ता और सरकार को जीवन के सभी रूपों—पौधों, जानवरों, पक्षियों और मछलियों—के प्रति संवेदनशील बनाकर, उनके प्रति बेहतर कानून बनाकर समूची जीवन और शासन व्यवस्था को पुनर्संयोजित किया जाए.

कीन आगे कहते हैं कि शायद आंशिक-मशीन, आंशिक-मन, कृत्रिम बुद्धिमत्ता को भी जीवन के व्यापक ताने-बाने में शामिल किया जाना चाहिए. इस प्रकार, डेमोस, जो लोकतंत्र की नींव बनाता था, उसकी जगह कॉस्मोस ले सकता है, जिसमें अस्तित्व के सभी रूप और संभावनाएं शामिल हों.

कॉस्मोक्रेसी के समर्थक उन विचारों को विकसित कर रहे हैं जो कानूनों और जीवन के सभी रूपों को आपस में समाहित कर देंगे. क्या यह कभी साकार हो सकेगा?

तकनीकी रूप से उत्पन्न मेटावर्स ने हमारे द्वारा जाने गए ब्रह्मांड के साथ जुड़ना शुरू कर दिया है. यह अनुमान लगाना कठिन है कि क्या वे संयुक्त रूप से कॉस्मोक्रेसी को जन्म देंगे. हालांकि यह निश्चित है कि कॉस्मोक्रेसी हर दोषपूर्ण लोकतंत्र के लिए विकल्प नहीं हो सकता. एकमात्र विकल्प लोकतंत्र का एक विकसित संस्करण है, चाहे उसे किसी भी नाम से पुकारा जाए. उस दिशा में मनुष्य ने सोचना शुरू कर दिया है.

 

Source: The Wire