प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगभग हर साल 15 अगस्त पर लाल किले से अपने भाषण में अन्य बातों के अलावा वन नेशन वन इलेक्शन की चर्चा जरूर करते हैं। इस बार भी उन्होंने यह चर्चा इस अंदाज में की, मानो अब वे इस पर सचमुच अमल करने का इरादा रखते हैं। लेकिन उनका यह इरादा एक दिन बाद ही गुब्बारा साबित हो गया। अगले ही दिन 16 अगस्त को चुनाव आयोग ने उस गुब्बारे में पिन चुभो कर उसकी हवा निकाल दी। गौरतलब है कि इस साल चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होना है। उम्मीद थी कि चुनाव आयोग प्रधानमंत्री के इरादे के मुताबिक चारों राज्यों के विधानसभा चुनाव और विभिन्न राज्यों में लगभग 30 विधानसभा सीटों के उपचुनाव एक साथ कराने का ऐलान करेगा। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। आयोग ने सिर्फ हरियाणा और जम्मू-कश्मीर के चुनाव का कार्यक्रम ही घोषित किया। गौरतलब है कि हरियाणा और महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव हमेशा एक साथ होते हैं लेकिन इस बार महाराष्ट्र का चुनाव भी हरियाणा के साथ घोषित नहीं किया गया। चुनाव आयोग ने इसकी जो वजहें बताई हैं, वे बेहद लचर और हास्यास्पद है। आयोग ने खास तौर पर सुरक्षा बलों की उपलब्धता की दलील दी। सवाल है कि जब चार राज्यों के चुनाव कराने लायक ही सुरक्षा बल देश में उपलब्ध नहीं है तो फिर सारे चुनाव एक साथ कराने के लिए वह सुरक्षा बल कहां से लाएगा? जाहिर है कि आयोग ने जो फैसला किया है वह राजनीतिक कारणों से सरकार के कहने पर किया है और इससे साबित हुआ है कि ‘वन नेशन वन इलेक्शन’ एक शिगूफा भर है।
स्पीकर का पत्रकारों को लंच और संविधान
इस बार लोकसभा चुनाव का सबसे बड़ा मुद्दा संविधान था और चुनाव के बाद भी राजनीतिक विमर्श में सबसे ज्यादा चर्चा संविधान की है। विपक्ष के सांसदों ने लोकसभा मे संविधान की प्रति हाथ में लेकर शपथ ली। राहुल गांधी से लेकर अखिलेश यादव तक सभी नेता बात-बात में संविधान बचाने की दुहाई देते हैं। विपक्ष का आरोप है कि नरेंद्र मोदी की सरकार संविधान का अपमान कर रही है और संविधान को खत्म कर देगी। इसीलिए प्रधानमंत्री मोदी ने भी संविधान को माथे लगा कर तीसरे कार्यकाल की शुरुआत की और अब लोकसभा स्पीकर ओम बिडला ने भी संसद सत्र की समाप्ति पर संसद की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों को संसद की एनेक्सी में दोपहर के भोजन पर बुलाया तो उन्हें संविधान की प्रति भेट की। संसद की एनेक्सी में स्पीकर पूरे समय खुद मौजूद रहे और पत्रकारों को राजस्थानी भोजन कराया। इस मौके पर उन्होंने पत्रकारों की समस्या भी सुनी। संसद की कार्यवाही कवर करने में आने वाली मुश्किलों के बारे में पत्रकारों ने शिकायत की तो उन्होंने सब कुछ लिख कर देने को कहा। बाद में उनके सहायकों ने पत्रकारों को संविधान की प्रति भेंट की। कई पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर संविधान की प्रति वाली तस्वीरें साझा कीं। जाहिर है कि सरकार, संसद के पीठासीन पदाधिकारियों और भाजपा के नेताओं विपक्ष के बनाए संविधान के नैरेटिव का जबरदस्त दबाव है और सब उसमें शामिल हो गए हैं।
भारतीय खुफिया एजेंसियों की नाकामी
हाल के दिनों में दक्षिण एशियाई देशों में बड़े उलटफ़ेर हुए हैं। कहीं चुनाव प्रक्रिया के जरिए तो कहीं राजनीतिक जोड़-तोड़ के जरिए सत्ता परिवर्तन हुआ और कहीं जनांदोलन के जरिए के जरिए तख्तापलट। लेकिन हैरानी की बात है कि किसी भी मामले में भारत की खुफिया एजेंसियां और कूटनीतिक चैनल या तो घटनाक्रम से अनजान रहे या जानते हुए भी कुछ नहीं कर पाए। आधुनिक संचार साधनों, निगरानी के उपकरणों और खुफिया एजेंसियों की जमीनी मौजूदगी के बावजूद यह बड़ी नाकामी इसलिए भी है कि अजित डोवाल देश के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार हैं। वे खुफिया और सामरिक एजेंसियों से सीधे रिपोर्ट लेते हैं और कूटनीतिक मामलों में भी उनका दखल रहता है। फिर भी खुफिया एजेंसियां और कूटनीतिक चैनल दोनों सभी मामलों में फेल रहे।
ताजा मामला बांग्लादेश में तख्तापलट का है। साल के शुरू में हुए चुनावों का जिस तरह से विपक्ष ने बहिष्कार किया था और अमेरिका ने चुनाव नतीजों पर सवाल उठाए थे उस समय भारत को समझ जाना चाहिए था कि वहां क्या हो रहा है। उसके बाद छह महीने तक हालात बिगड़ते गए। लेकिन साफ दिख रहा है कि भारत को अंदाजा ही नहीं था कि वहां हालात इतने बिगड़ जाएंगे कि शेख हसीना को भागना पड़ेगा। हकीकत यह है कि खुद हसीना भी बेफिक्र रहीं। बाद में हालात ऐसे हो गए कि सेना ने उन्हें सिर्फ 45 मिनट का समय दिया देश छोड़ने के लिए। वे राष्ट्रीय टीवी चैनल से देश को संबोधित करना चाहती थीं लेकिन सेना ने उन्हें इसकी अनुमति नहीं दी।
भारत की कूटनीति छोटे देशों में भी कारगर नहीं
बांग्लादेश में तख्तापलट से पहले नेपाल में राजनीतिक जोड़-तोड़ के जरिए सत्ता बदली। अचानक भारत विरोधी और चीन समर्थक केपी शर्मा ओली प्रधानमंत्री बन गए और भारत कुछ नहीं कर सका। नेपाल में कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल (माओवादी सेंटर) के नेता पुष्पकमल दहल ‘प्रचंड’ मुख्यमंत्री थे। उनकी सरकार केपी शर्मा ओली की पार्टी सीपीएन-यूएमएल के समर्थन से बनी थी। चीन समर्थक ओली ने पिछले दिनों उनसे समर्थन वापस ले लिया और फिर उन्होंने नेपाली कांग्रेस से तालमेल करके अपनी सरकार बना ली। वे चौथी बार नेपाल के प्रधानमंत्री बने हैं। जाहिर है कि चीन लगातार नेपाल की अंदरुनी राजनीति में दखल बनाए हुए है लेकिन भारत को इस बदलाव का अंदाजा पहले से नहीं हुआ। उससे भी पहले चुनाव के जरिए मालदीव में सत्ता बदली थी। अप्रैल में हुए चुनाव मे मुइज्जू की पार्टी पीएनसी को बहुमत मिल गया। भारत समर्थक मोहम्मद सोलिह की पार्टी बुरी तरह हारी। इस मामले में भी यही जाहिर हुआ था कि भारत की खुफिया एजेंसियों और कूटनीतिक चैनल्स को इसका अंदाजा नहीं था। इसीलिए भारत बैकफुट पर आ गया, जब नए राष्ट्रपति मुइज्जू ने भारतीय सेना को वहां से हटने को कहा।
गौरतलब है कि इसके बाद ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की लक्षद्वीप की यात्रा हुई और लक्षद्वीप बनाम मालदीव की बहस शुरू हुई। पर्यटन कूटनीति के जरिए मालदीव को दबाने का प्रयास हुआ। बहरहाल, श्रीलंका से लेकर मालदीव, अफगानिस्तान, नेपाल और बांग्लादेश तक भारत मानवीय मदद भेजता है लेकिन अपना ऐसा महत्व नहीं बना पाता है, जिससे वह कूटनीतिक व सामरिक लाभ उठा सके।
एससी, एसटी फैसले पर भाजपा की मजबूरी
अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के वर्गीकरण और उसमें क्रीमी लेयर लागू करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले को सरकार नहीं लागू करेगी। कैबिनेट की बैठक में पिछले हफ्ते इसका फैसला हुआ। यानी सरकार एक अध्यादेश लाकर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को निरस्त करेगी। अभी तक भाजपा ने इस फैसले पर चुप्पी साधे रखी थी। दूसरी ओर कांग्रेस भी चुप थी। हालांकि तेलंगाना के उसके मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने ऐलान कर दिया था कि इस फैसले को लागू करने वाला तेलंगाना पहला राज्य बनेगा। इससे कांग्रेस का नजरिया साफ हो गया था। ऐसा लग रहा था कि भाजपा और कांग्रेस इसके समर्थन में है और बाकी पार्टियां का भी फैसले को मौन समर्थन हासिल है। लेकिन ऐसा लग रहा है कि दलित और पिछड़े समाज के बौद्धिकों के सोशल मीडिया में चलाए अभियान के दबाव में सरकार झुकी है। सोशल मीडिया में इस फैसले के खिलाफ और न्यायपालिका के खिलाफ भी माहौल बनाया गया था। उसके बाद ही 21 अगस्त को भारत बंद का ऐलान हुआ और फिर मायावती व चंद्रशेखर इसके विरोध में उतरे। इसके अलावा कहीं न कहीं बांग्लादेश का घटनाक्रम भी सरकार के पीछे हटने का एक कारण बना। गौरतलब है कि बांग्लादेश में भी अदालत ने ही आरक्षण में बदलाव किया था और 1971 के मुक्ति संग्राम से जुड़े लोगों के बच्चों को मिलने वाला आरक्षण 3० फीसदी कर दिया था। उसके बाद ही छात्रों का आंदोलन भड़का था। ध्यान रहे मणिपुर की हिंसा भी बहुसंख्यक मैतेई समुदाय को एसटी का दर्जा देने के हाई कोर्ट के फैसले से ही शुरू हुई थी।
दिल्ली में कांग्रेस को लेकर भाजपा की चिंता
दिल्ली में अगले साल जनवरी में विधानसभा का चुनाव है। उससे पहले भाजपा को यह चिंता सता रही है कि कांग्रेस फिर खड़ी हो सकती है। यह चिंता इसलिए है क्योंकि दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो अरविंद केजरीवाल जेल में हैं। दिल्ली प्रदेश भाजपा के हलकों में माना जा रहा है कि अगर केजरीवाल ज्यादा समय तक जेल में रहते हैं तो उनकी पार्टी में बिखराव होगा और प्रवासी व मुस्लिम मतदाताओं का रुझान कांग्रेस की ओर बनेगा। ऊपर से हरियाणा में अगले कुछ दिनों में विधानसभा चुनाव है, जिसमें कांग्रेस की वापसी के प्रबल आसार हैं। अगर हरियाणा में भाजपा को हरा कर कांग्रेस जीत जाती है और आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन नहीं सुधरता है तो दिल्ली के चुनाव पर इसका बड़ा असर होगा। कांग्रेस को हरियाणा में मिलने वाली जीत का फायदा दिल्ली में भी मिलेगा।
भाजपा के शीर्ष नेतृत्व को भी कांग्रेस के पुनर्जीवित होने की चिंता ही सता रही है, इसीलिए पश्चिम बंगाल से लेकर महाराष्ट्र और दूसरे कई राज्यों में कांग्रेस को रोकने के लिए उसकी सहयोगी पार्टियों का ही सहारा लिया जा रहा है। भाजपा के नेता झारखंड की मिसाल दे रहे हैं, जहां मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन जेल से रिहा हो गए हैं और उसके बाद से जेएमएम के मुकाबले भाजपा का ग्राफ कुछ बढ़ा है। इसी तर्ज पर दिल्ली के भाजपा नेता चाहते हैं कि केजरीवाल की भी रिहाई हो जाए ताकि सहानुभूति का फैक्टर कम हो और कांग्रेस की संभावना को खत्म किया जा सके।
कितने लंबे हैं बृजभूषण के हाथ?
पेरिस ओलम्पिक में 50 किलो भार वर्ग में विनेश फोगाट के साथ जो हुआ उसे लेकर कई तरह की कहानियां प्रचलित हैं। सभी कहानियां साजिश थ्योरी से जुड़ी हैं। उनमे एक कहानी यह है कि भारतीय कुश्ती महासंघ के पूर्व अध्यक्ष और भाजपा के पूर्व सांसद बृजभूषण शरण सिंह ने सुनिश्चित किया कि विनेश फोगाट को पदक नहीं मिले। अगर विनेश स्वर्ण या रजत पदक लेकर आती तो सबसे ज्यादा किरकिरी बृजभूषण की होती और उसके बाद भाजपा व केंद्र सरकार की होती। जिस समय महिला पहलवानों के यौन शोषण को लेकर विनेश ने धरना दिया था उस समय बृजभूषण ने कहा था कि वह ओलंपिक के लिए क्वालिफाई भी नहीं कर पाएगी। इसीलिए साजिश थ्योरी प्रचारित करने वालों का कहना है कि बृजभूषण दशकों तक कुश्ती संघों की राजनीति से जुड़ा रहा है और उसने अपने संपर्कों का फायदा उठा कर भारतीय कुश्ती संघ के कार्यकारी अध्यक्ष संजय सिंह को पेरिस भेजा और वहां ओलंपिक संघ के अपने संपर्कों के जरिए यह सुनिश्चित किया कि विनेश को पदक नहीं मिले। हालांकि इसका कोई आधार नहीं है लेकिन यह सवाल जरूर है कि क्या सचमुच बृजभूषण के हाथ इतने लंबे हैं कि वह ओलंपिक में पदक रुकवा सकता है? बहरहाल, यह सवाल भी है कि विनेश फोगाट नियम के तहत खेल कर फाइनल तक पहुंची थी तो उनको रजत पदक निश्चित रूप से मिलना चाहिए था, वह क्यों नहीं मिला?
विपक्ष को और भी चाहिए जेपीसी
सरकार वक्फ बोर्ड कानून में संशोधन के विधेयक पर संयुक्त संसदीय समिति यानी जेपीसी के गठन के लिए सहमत हो गई तो अब विपक्ष की मुखरता बढ़ेगी। पहले विपक्ष ने मान लिया था कि मोदी सरकार जेपीसी का गठन नहीं करती है। इसीलिए शुरुआती कुछ सालों को छोड़ कर विपक्ष ने जेपीसी की मांग ही छोड़ दी थी। यहां तक कि मोदी सरकार के पहले 10 साल में तो विधेयकों को संसद की स्थायी समितियों के पास भी नहीं भेजा जाता था और न प्रवर समिति में कोई विधेयक जाता था। कई विधेयक तो सरकार संसद के दोनों सदनों में बगैर बहस के ही पारित करा लिया करती थी। लेकिन अब स्थिति बदल चुकी है। विपक्ष संख्याबल के लिहाज से भी मजबूत भी है पहले से ज्यादा मुखर भी। इसीलिए सरकार विपक्ष के दबाव में वक्फ बोर्ड कानून संशोधन विधेयक जेपीसी को भेजने पर सहमत हुई। अब एक विधेयक जेपीसी को भेजा गया तो विपक्ष को लग रहा है कि रास्ता खुल गया है। इसलिए उसने कुछ अन्य मुद्दों पर भी जेपीसी की मांग शुरू कर दी है।
इस बीच हिंडनबर्ग रिसर्च ने नया दावा किया है कि सेबी प्रमुख माधवी बुच का निवेश उसी विदेशी कंपनी में है, जिसमें अडानी समूह का निवेश है तो विपक्ष को याद आया कि उसे हिंडनबर्ग मामले की भी जेपीसी जांच की मांग करनी थी। सो, अब विपक्ष ने उसकी भी जांच का मुद्दा उठाया है। संसद के अगले यानी शीतकालीन सत्र में कुछ नए मामले सामने आएंगे, जिन पर विपक्ष जेपीसी की मांग करेगा।
Source: News Click