
बिड़ला ने जाखड़ और महाजन को पीछे छोड़ा!
लोकसभा स्पीकर जिस भी दल का चुना जाए, माना जाता है कि चुने जाने के बाद उसकी दलीय संबद्धता औपचारिक तौर पर खत्म हो जाती है और वह दलीय गतिविधियों से अपने को दूर कर लेता है। उससे अपेक्षा की जाती है कि वह सदन की कार्यवाही का संचालन दलीय हितों और भावनाओं से ऊपर उठकर करते हुए विपक्षी सदस्यों के अधिकारों का भी पूरा संरक्षण करेगा।
इसीलिए आदर्श स्थिति यही मानी गई कि स्पीकर का निर्वाचन सर्वसम्मति से होना चाहिए। बावजूद इसके कि स्पीकर हमेशा ही निर्विरोध चुने जाते रहे हैं, हर स्पीकर की निष्पक्षता का पलड़ा थोड़ा बहुत सत्तारूढ़ दल और सरकार की ओर ही झुका रहता आया है। लोकसभा के इतिहास में बलराम जाखड़ पहले ऐसे स्पीकर थे जो लगातार दो बार -सातवीं और आठवीं लोकसभा में इस पद के लिए चुने गए। उनका पहला कार्यकाल कमोबेश निर्विवाद रहा, लेकिन दूसरा कार्यकाल विवादों से लबालब। आठवीं लोकसभा के हर सत्र में हर दिन उन्होंने सरकार के लिए ‘सिक्योरिटी गार्ड’ की तरह काम किया।
ऐसा लगता था कि पक्षपाती स्पीकर के रूप में उनका रिकॉर्ड शायद ही कोई तोड़ पाएगा। 15वीं लोकसभा तक उनका रिकॉर्ड बरकरार रहा, जिसे 16वीं लोकसभा में स्पीकर रहीं सुमित्रा महाजन ने तोड़ा। सदन में हो या सदन के बाहर, उनका आचरण प्रतिबद्ध पार्टी कार्यकर्ता जैसा ही रहा। ऐसा लगता था कि स्पीकर पद को पतन की जिस ऊंचाई तक उन्होंने पहुंचाया है, उससे आगे ले जाना शायद ही संभव हो पाएगा लेकिन 17वीं लोकसभा में स्पीकर बने ओम बिड़ला ने अपने पक्षपाती और अभद्र व्यवहार से महाजन को भी पीछे छोड़ दिया। फिलहाल 18वीं लोकसभा में भी वे अपने इस सिलसिले को तेजी से बनाए हुए हैं।
ग़रीबी मापने का यह कैसा फ़ॉर्मूला?
भारत सरकार का गरीबी रेखा का नया फॉर्मूला बेहद अजीबोगरीब है। इस फॉर्मूले का ऐलान करते हुए प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद की सदस्य डॉ. शामिका रवि ने कहा है कि हर महीने शहरों में 1410 रुपए और गांवों में 960 रुपए से कम खर्च करने वाला गरीब है। यानी सरकार कह रही है कि अगर शहरों में कोई व्यक्ति 42 रुपया रोज खर्च करने की स्थिति में है तो उसे गरीब नहीं माना जाएगा। ऐसे ही गांवों में अगर कोई 32 रुपये रोज खर्च कर रहा है तब तो वह गरीब है लेकिन अगर 33 रुपया खर्च करता है तो वह गरीबी रेखा से ऊपर उठा हुआ माना जाएगा।
यह फॉर्मूला उस सरकार का है जिसका मुखिया अक्सर कहता रहता है कि मैंने गरीबी को जिया है। इस फॉर्मूले के आधार पर सरकार का दावा है कि भारत में अब सिर्फ चार फीसदी गरीब रह गए हैं और पिछले 11 साल में करीब 30 फीसदी लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला गया है।
हैरानी की बात है कि सरकार ने चार फीसदी लोगों को भी गरीबी रेखा के नीचे क्यों छोड़ दिया? खर्च की सीमा को चार-पांच रुपया और कम करके सबको गरीबी रेखा से बाहर निकाल देना चाहिए था। यह कमाल की तकनीक है, जिससे वातानुकूलित दफ्तर में बैठे-बैठे करोड़ों लोगों को गरीबी रेखा से बाहर निकाला जा सकता है।
सवाल है कि जब सिर्फ चार फीसदी लोग ही गरीब हैं तो 60 फीसदी लोगों को हर महीने पांच किलो मुफ्त अनाज क्यों दिया जा रहा है?
नागपुर दंगा संयोग है या प्रयोग?
मुगल शासक औरंगजेब की कब्र को लेकर महाराष्ट्र में विवाद छिड़ा और राज्य के सबसे शांत शहरों में शुमार नागपुर में सांप्रदायिक दंगा हो गया। सबसे ज्यादा संवेदनशील संभाजीनगर है, जिसका नाम पहले औरंगाबाद था और जहां औरंगजेब की कब्र है लेकिन संभाजीनगर में दंगा नहीं हुआ।
मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़णवीस ने कहा है कि नागपुर का दंगा पूर्वनियोजित था। सवाल है कि दंगा नागपुर में क्यों पूर्वनियोजित था? एक दक्षिणपंथी सोशल मीडिया इन्फ्लूएंसर का कहना है कि यह संयोग नहीं है कि जिस दिन यह खबर आई कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 30 मार्च को नागपुर जाएंगे, जहां वे संघ के एक कार्यक्रम में शामिल होंगे, उसी दिन नागपुर मे दंगे हुए। इस आधार पर माना जा रहा है कि एक प्रयोग के तहत नागपुर को अशांत करने के लिए चुना गया।
अगर ऐसा है तो बड़ा सवाल है कि क्या फड़णवीस को पहले से अंदाजा नहीं था कि नागपुर उनका अपना चुनाव क्षेत्र है, जो कई कारणों से संवेदनशील हो गया है और प्रधानमंत्री वहां जाने वाले हैं तो इसके लिए खुफिया एजेंसियों को अलर्ट पर रखा जाए, जो किसी साजिश के बारे में पहले सूचना दे सकें? लेकिन राज्य सरकार ने कुछ भी नहीं किया।
सवाल है कि सरकार गफलत में रही या उसने जान बूझकर कुछ नहीं किया, क्योंकि उसे पता था कि अगर कुछ होता है तो ध्रुवीकरण कराने में आसानी होगी? दूसरे, मुख्यमंत्री खुद मान रहे हैं कि संभाजी महाराज के जीवन पर बनी ‘छावा’ फिल्म से लोगों की भावनाएं भड़की। फिर भी सरकार अलर्ट नहीं थी तो क्या कहा जा सकता है!
सरकारी गवाह बनाने का खेल
केंद्र सरकार की एजेंसियां अपनी कार्यशैली को लेकर अदालतों के निशाने पर हैं। पिछले कुछ समय के दौरान सुप्रीम कोर्ट और कई हाई कोर्टों ने प्रवर्तन निदेशालय यानी ईडी और सीबीआई जैसी एजेंसियों पर सख्त टिप्पणियां की हैं। हो सकता है कि आने वाले दिनों में इस बात पर भी टिप्पणी हो कि ये एजेंसियां आरोपियों को सरकारी गवाह बनाने के खेल में लगी हैं और उनके सहारे ही दूसरे आरोपियों को सजा दिलाने का प्रयास कर रही हैं।
ताजा मामला पश्चिम बंगाल का है, जहां ईडी ने शिक्षक भर्ती घोटाले के एक आरोपी को सरकारी गवाह बनाने का फैसला किया है। विशेष अदालत ने इसकी अनुमति भी दे दी है। शिक्षक भर्ती घोटाले में ईडी ने मुख्य आरोपी ममता बनर्जी सरकार के पूर्व मंत्री पार्थ चटर्जी के दामाद कल्याणमय भट्टाचार्य को सरकारी गवाह बनाया है। पहले ईडी ने उन्हें भी आरोपी बनाया था लेकिन अब वे सरकारी गवाह बन गए है। अपने को बचाने के लिए इसी तरह आरोपी सरकारी गवाह बनते रहे तो फिर भ्रष्टाचार खत्म करने के अभियान का क्या होगा?
एक बड़ा सवाल यह है कि विपक्षी पार्टियों के बड़े नेताओं को फंसाने और सजा दिलाने के लिए क्या आरोपियों को सरकारी गवाह बनाने की इजाजत दी जानी चाहिए? सवाल यह भी है कि क्या एजेंसियां पुख्ता सबूत नहीं मिलने की वजह से यह रास्ता अपना रही हैं? शराब नीति घोटाले में भी आरोपियों को सरकारी गवाह बनाया गया है और उनकी गवाही पर अरविंद केजरीवाल के खिलाफ कार्रवाई हो रही है।
स्टालिन के एजेंडे को कांग्रेस का समर्थन
ऐसा लग रहा है कि कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर पर बने विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ को राज्यों में रिपीट करना चाहती है। इसीलिए वह तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के एजेंडे का खुल कर समर्थन कर रही है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के एजेंडे का भी वह समर्थन कर रही है। इसीलिए राहुल गांधी ने संसद के बजट सत्र के दूसरे चरण के पहले दिन मतदाता सूची में गड़बड़ी का मामला उठाया, जिस पर तृणमूल कांग्रेस के सांसदों ने उनका साथ दिया। अब कांग्रेस शासित राज्यों के मुख्यमंत्री परिसीमन और नई शिक्षा नीति के मसले पर एमके स्टालिन के एजेंडे का समर्थन कर रहे हैं।
पिछले दिनों स्टालिन ने इस मसले पर अपने राज्य की सभी पार्टियों की बैठक बुलाई तो कांग्रेस नेता उसमें शामिल हुए। बाद में स्टालिन की ओर से सात राज्यों के मुख्यमंत्रियों को 22 मार्च की बैठक का न्योता भेजे जाने के बाद कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने समर्थन किया और उसमें शामिल होने पर सहमति दी। तेलंगाना के मुख्यमंत्री रेवंत रेड्डी ने भी खुल कर स्टालिन की पहल का समर्थन किया। कांग्रेस आलाकमान की हरी झंडी मिलने के बाद रेवंत रेड्डी, डीके शिवकुमार, ओडिशा कांग्रेस के अध्यक्ष भक्तचरण दास आदि ने स्टालिन की बुलाई बैठक में भाग लिया।
शशि थरूर के क़दम भाजपा की ओर
केरल से कांग्रेस सांसद शशि थरूर ने पहले तो अपने एक लेख में राज्य की कम्युनिस्ट सरकार की तारीफ की थी, जिसके बाद कांग्रेस आलाकमान से उनकी दूरी बढ़नी शुरू हुई। लेकिन ऐसा लग रहा है कि वे धीरे-धीरे भाजपा की ओर बढ़ रहे हैं। हालांकि कांग्रेस के कुछ नेताओं का मानना है कि थरूर समान रूप से भाजपा और सीपीएम दोनों को खुश रखने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन ऐसा भी कुछ नहीं कर रहे हैं जिससे कांग्रेस आलाकमान उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करे। यानी वे कांग्रेस नेतृत्व से अपनी नाराजगी तो दिखा रहे है लेकिन इतनी दूरी नहीं बना रहे हैं, जहां से वापसी की गुंजाइश न रहे।
यह थरूर की कूटनीतिक पैंतरेबाजी है। आखिर वे बरसों तक संयुक्त राष्ट्र संघ में रहे हैं, जहां उन्होंने दुनिया भर के देशों और वैश्विक नेताओं की कूटनीति देखी है। इसीलिए हैरानी हुई, जब उन्होंने माना कि भारत सरकार की यूक्रेन नीति को पहले वे समझ नहीं पाए थे और उसकी आलोचना की थी। थरूर ने यह बात संसद में कही है। उन्होंने अपनी गलती मानी और कहा कि भारत सरकार की यूक्रेन नीति सही थी, क्योंकि उससे अब स्थायी शांति की उम्मीद बंधी है। गौरतलब है कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने शांति की पहल के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को धन्यवाद कहा है। बहरहाल, थरूर ने वहां निशाना लगाया है, जहां सबसे ज्यादा असर होता है। उन्होंने विदेश नीति पर प्रधानमंत्री मोदी की तारीफ की है, जिससे मोदी निश्चित ही खुश हुए होंगे।
कर्नाटक में मुफ़्त में शराब देने की मांग
एक तरफ मुफ्त की चीजो को लेकर गंभीर चर्चा की मांग हो रही है तो दूसरी ओर राज्यों में विभिन्न पार्टियां राजनीतिक लाभ के लिए हर दिन नई-नई चीजों को मुफ्त देने की मांग कर रही हैं। इस सिलसिले में कर्नाटक में भाजपा के सहयोगी जनता दल (एस) के विधायक एमटी कृष्णप्पा ने कहा है कि सरकार को शराब पीने वालों को मुफ्त में शराब की बोतल देनी चाहिए। यह बात उन्होंने किसी राजनीतिक कार्यक्रम में नहीं, बल्कि विधानसभा में कही है। कृष्णप्पा ने अध्यक्ष को संबोधित करते हुए कहा, अध्यक्ष महोदय मुझे गलत मत समझिए, लेकिन जब सरकार लोगों को दो हजार रुपए नकद देती है या मुफ्त में बिजली देती है तो वह जनता का ही पैसा होता है। तो उनसे कहिए वे शराब पीने वालों को हर हफ्ते दो बोतल शराब भी मुफ्त में दे। उनकी इस मांग पर कांग्रेस के विधायक केजे जॉर्ज ने कहा कि जनता दल एस चुनाव लड़ कर जीते और तब इस योजना को लागू करे। बहरहाल सवाल इस सोच के बारे में है।
गौरतलब है कि चुनावों में पार्टियां और उनके उम्मीदवार शराब बंटवाते हैं। शायद ही कोई पार्टी होगी, जो ऐसा नहीं करती है। लेकिन पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा की पार्टी के विधायक ने शराब बांटने को आधिकारिक और सांस्थायिक बनाने की मांग की है। कोई आश्चर्य नहीं कि जिस तरह से मुफ्त की चीजे बांटने का चलन बढ़ रहा है, आने वाले समय में कोई पार्टी इसकी सचमुच घोषणा कर दे!
Source: News Click