यह हिंदी-उर्दू का विवाद नहीं है। ये राजनीति का, राजनीति के लिए, राजनीति द्वारा पैदा किया विवाद है। सीधे सीधे यह मेरा गला घोंटने का प्रयास है। आम जनता को गूंगा बनाने की साज़िश है।

हिन्दी में और उर्दू में फ़र्क़ है तो इतना

वो ख़्वाब देखते हैं हम देखते हैं सपना

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने उर्दू भाषा को लेकर जो बयान दिया है वह दरअसल उनकी कम-समझ या जानकारी की कमी का नतीजा नहीं है, जो हम हिंदी-उर्दू की मोहब्बत के गाने गाकर, साझा संस्कृति-साझी विरासत-साझा शहादत के कुछ उदाहरण देकर उन्हें समझा सकें।

योगी जी ने उत्तर प्रदेश विधानसभा में बजट सत्र के दौरान कहा कि – “समाजवादियों का चरित्र दोहरा हो चुका है, ये अपने बच्चों को पढ़ाएंगे इंग्लिश स्कूल में और दूसरों के बच्चों के लिए कहेंगे उर्दू पढ़ाओ… उसको मौलवी बनाना चाहते हैं, ‘कठमुल्लापन’ की ओर देश को ले जाना चाहते हैं।”

दरअसल, योगी सरकार ने सदन की कार्यवाही में कई रीजनल भाषाओं को शामिल किया है, लेकिन उर्दू को इसमें जगह नहीं दी गई है। जबकि उर्दू उत्तर प्रदेश की दूसरी आधिकारिक भाषा है। उर्दू भारत की भी एक आधिकारिक भाषा है। संविधान की आठवीं अनुसूची में 22 भाषाएं शामिल की गई हैं, और उर्दू उनमें से एक है।

विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पांडेय ने सदन में यही कहा था कि फ्लोर लैंग्वेज में अंग्रेज़ी की जगह उर्दू कर दिया जाए। अंग्रेजी की ज़रूरत नहीं है। उर्दू हमारी दूसरी भाषा है।

इसी पर योगी जी भड़क गए और मौलवी और कठमुल्ला वाला यह विवादित बयान दिया।

नेता प्रतिपक्ष माता प्रसाद पांडे ने इस पर आपत्ति की।  उन्होंने कहा– “मुख्यमंत्री ने कहा कि उर्दू कठमुल्ला पैदा करती है। मैं इस शब्द पर आपत्ति करता हूं और पूछना चाहता हूं कि बड़े उर्दू शायर फ़िराक़ गोरखपुरी भी कठमुल्ला थे (आपको बता दें कि फ़िराक़ साहब का पूरा नाम रघुपति सहाय ‘फ़िराक’ था और वे उर्दू अदब के साथ उसी गोरखपुर की शान हैं जहां से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आते हैं।) या उर्दू का ज्ञान रखने वाले प्रख्यात उपन्यासकार मुंशी प्रेमचंद भी कठमुल्ला थे? या विश्वविद्यालय में जो उर्दू विभाग खोला गया है, वहां पढ़ने वाले भी कठमुल्ले हैं क्या?”

माता प्रसाद पांडे ने कहा- ”जिन्हें अंग्रेज़ी पढ़नी है, उनसे हमें ऐतराज़ नहीं है। अंग्रेज़ी का ज्ञान प्राप्त करना ग़लत नहीं है, लेकिन अंग्रेज़ी के माध्यम से इस विधानसभा में नई प्रक्रिया शुरू करना है। मैं इसका विरोध करता हूं। मुख्यमंत्री योगी उर्दू से चिढ़ जाते हैं, नाराज़ हो जाते हैं, इनका अपना एजेंडा है।”

राज्यसभा सांसद संजय सिंह ने भी इस मुद्दे पर तीखे सवाल उठाए। उन्होंने कहा, ‘सीएम योगी ने सदन में अपने 4 मिनट 20 सेकंड के भाषण में कुल 9 बार उर्दू भाषा का इस्तेमाल किया। शिक्षा मंत्री जैन चौधरी कह रहे हैं कि 8 महीने में यूपी में 7 लाख 84 हजार बच्चे सरकारी स्कूल छोड़ चुके हैं। वे कौन हैं, मौलाना या मुसलमान?’ उन्होंने कहा कि सदन में अहम मुद्दों पर कोई चर्चा नहीं हो रही है और ध्यान भटकाया जा रहा है।

कुल मिलाकर यही बात है, ध्यान भटकाना और अपना एजेंडा लागू करना। दरअसल यह उनकी उसी हिंदू-मुस्लिम राजनीति की सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है, जो लोगों में दरार डालती है, नफ़रत फैलाती है। लोगों को बांटती है। इसके जरिए वे एक बार फिर मुसलमानों को निशाना पर ले रहे हैं और हम एक बार फिर जुट गए हैं उन्हें समझाने कि– नहीं, माननीय उर्दू मुसलमानों की भाषा नहीं है, यह तो हिंदुस्तान की भाषा है। हिंदुस्तान में ही पैदा हुई और आज़ादी की लड़ाई में इसका बड़ा रोल है आदि आदि।

मेरा मानना है कि इन सब बातों से योगी जी, मोदी जी, आरएसएस सभी वाक़िफ़ हैं। वे जानते हैं कि वे ख़ुद और हम सभी आज मिलीजुली ज़बान बोलते हैं, जिसमें हिंदी, उर्दू और अंग्रेज़ी समेत तमाम भाषाओं और बोलियों के शब्द हैं।

“भाखा बहता नीर है” 

यह प्रसिद्ध कथन कबीर दास का है। इसका अर्थ है कि “भाषा एक बहता हुआ पानी (नदी) है।”

कबीर यह कहना चाहते थे कि भाषा समय के साथ बदलती रहती है, उसमें नए शब्द और प्रवृत्तियां आती रहती हैं। वह किसी एक स्थान या काल में स्थिर नहीं रहती, बल्कि निरंतर प्रवाहमान रहती है, जैसे बहता हुआ पानी।

कबीर की यही ‘भाखा’ थी जिसे बड़े-बड़े विद्वान पहचान ही न सके। लेकिन वे इतने लोकप्रिय और महत्वपूर्ण कवि हैं कि विद्वानों ने उनकी भाषा को सधुक्कड़ी भाषा का नाम दिया।

कबीर की भाषा में अवधी, ब्रज, खड़ी बोली, राजस्थानी, पंजाबी, भोजपुरी, संस्कृत, अरबी और फ़ारसी सभी भाषाओं के शब्द मिलते हैं। इसलिए उनकी भाषा आम जन की भाषा है।

और फिर अमीर ख़ुसरो– ख़ुसरो को आप क्या कहेंगे। हिंदी का कवि या उर्दू-फ़ारसी का शायर।

ज़े-हाल-ए-मिस्कीं मकुन तग़ाफ़ुल दुराय नैनां बनाए बतियां

कि ताब-ए-हिज्रां नदारम ऐ जां न लेहू काहे लगाए छतियां

 

शबान-ए-हिज्रां दराज़ चूं ज़ुल्फ़ ओ रोज़-ए-वसलत चूं उम्र-ए-कोताह

सखी पिया को जो मैं न देखूं तो कैसे काटूं अंधेरी रतियां

 

इसे आप किस जबान की कविता कहेंगे!

अमीर ख़ुसरो (1253-1325) को भारतीय उपमहाद्वीप का पहला सूफी कवि और हिंदी-उर्दू शायरी का जनक माना जाता है। वे आम बोलचाल की भाषा को काव्य में अपनाने के पक्षधर थे।

आप जानते हैं कि इसी संदर्भ में हिंदी और उर्दू दोनों ही आम लोगों की ज़बान हैं। मेहनतकश की ज़बान हैं। इन दोनों भाषाओं का जन्म ही शुद्धतावाद, तत्समवाद यानी श्रेष्ठतावाद के विरोध में हुआ।

संस्कृत के पंडितों ने कब हिंदी को सम्मान दिया और फ़ारसी-अरबी के विद्वानों ने कब उर्दू को इज़्ज़त बख़्शी। दोनों के लिए ये भाषाएं दोयम दर्जे की गिरी-पड़ी ज़बानें थी। उर्दू जिसे शुरुआत में रेख़्ता कहा जाता था उसका एक अर्थ-विशेषण मिश्रित और गिरा-पड़ा, टूटा-फूटा भी है। यानी उर्दू मिश्रित ज़बान है। जिसमें फ़ारसी, अरबी और तुर्की का प्रभाव था, जो हिंदुस्तान की गोद में जन्मी और हिंदवी या हिंदुस्तानी बन गई। इसे लश्करी ज़बान भी कहा जाता था। क्योंकि यह मुगल सैनिकों और आम लोगों के बीच बातचीत का एक माध्यम थी।

कुल मिलाकर एक समय ब्राह्मणवादियों, शुद्धतावादियों की नज़र में हिंदी-उर्दू अनपढ़-जाहिल-गंवार लोगों की ज़बान थी।

हालांकि अब यही श्रेष्ठतावाद कुछ कुछ हिंदी और उर्दू वालों में भी देखने को मिलता है। अच्छी हिंदी जानने वाले भी ब्रज, अवधी, भोजपुरी आदि भाषा या बोली बोलने पर कैसे हंसते हैं। ज़रा सा उच्चारण गड़बड़ हो जाने पर दूसरों का मज़ाक बनाते हैं।

ऐसे ही उर्दू वाले नुक़्ते में ज़रा सी हेरफेर हो जाने पर सामने वाले की हंसी उड़ाते हैं। उसे जाहिल कह देते हैं। वे भूल जाते हैं कि कभी फ़ारसी वालों के सामने उनकी ऐसे ही हंसी उड़ी थी। और फ़ारसी वाले भी भूल जाते हैं कि अरबी भाषा वाले फ़ारसी को भी दोयम दर्जे की ज़बान समझते हैं। जैसे ब्राह्मणवादी इस पर गर्व करते हैं सारे वेद-उपनिषद, रामायण संस्कृत में हैं, इसलिए संस्कृत देववाणी है, इसी तरह अरबी वालों को इसपर गर्व है कि कुरआन अरबी में नाज़िल हुई।

यही वजह है कि कट्टरवादी मुसलमानों ने ख़ुदा को भी ‘घर निकाला’ दे दिया है। हम अपने आसपास देख रहे हैं कि अब लोग ख़ुदा हाफ़िज़ की बजाय अल्लाह हाफ़िज़ बोलने लगे हैं जबकि 20 साल पहले तक हमारी ज़बान में ख़ुदा हाफ़िज ही शामिल था। चूंकि ख़ुदा फ़ारसी का शब्द है और अल्लाह अरबी का, इसलिए अब इस्लामिक कट्टरपंथी चाहते हैं कि ख़ुदा की जगह हम अल्लाह ही बोलें। यानी भाषाओं का यह झगड़ा सत्ता का भी झगड़ा है।

इसी का ज़िक्र 2013 में भारत दौरे पर आईं पाकिस्तान की मशहूर शायरा फ़हमीदा रियाज़ ने भी किया था कि किस तरह पाकिस्तान में भी कट्टरवाद बढ़ता जा रहा है और ‘ख़ुदा’ को देश निकाला दे दिया गया है।

इसी तरह एक समय अंग्रेज़ी की भी स्थिति थी। उसे भी दोयम दर्जे की ज़बान माना जाता था। अब अंग्रेज़ी जानने वाले अंग्रेज़ी न बोल पाने वालों को पिछड़ा मान लेते हैं। आपको मालूम है कि एक समय कैथोलिक चर्च के प्रभाव वाले यूरोप में अंग्रेज़ी में बाइबल पढ़ना भी गुनाह माना जाता था।

5वीं से 15वीं शताब्दी के बीच मध्य युग में कैथोलिक चर्च का मत था कि बाइबल केवल लैटिन भाषा (Vulgate Bible) में होनी चाहिए, जिसे आम लोग नहीं समझ सकते थे।

चर्च का मानना था कि केवल पादरी और विद्वान ही इसे समझ सकते हैं, इसलिए आम जनता को सीधे बाइबल पढ़ने की अनुमति नहीं थी।

यही वेद-उपनिषद के साथ हुआ। मनुस्मृति (अध्याय 8, श्लोक 272) में लिखा है कि कोई शूद्र अगर वेद को सुनता है तो उसके कानों में पिघला सीसा और तेल डलवा देना चाहिए।

तुलसीदास ने जब अवधी में रामचरित मानस लिखी तो उस समय के पंडो ने इसका बहुत विरोध किया। उनके अनुसार तुलसीदास कैसे ‘देववाणी संस्कृत’ में लिखी गई रामायण को आम बोलचाल की भाषा अवधी में लिख सकते थे।

इसी तरह भाजपा को हिन्दुस्तान शब्द से भी परहेज़ है क्योंकि वो भी उर्दू से आया है इसलिए भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी हिन्दुस्तान को ‘हिन्दुस्थान’ कहते थे। आरएसएस और भाजपा ने पहले नारा दिया- गर्व से कहो हम हिंदू हैं, लेकिन जब पूछा गया कि हिंदू शब्द भी तो हमें मुसलमानों ने दिया है तो मुसलमानों से नफ़रत क्यों तो आरएसएस-भाजपा वालों ने अब ख़ुद को सनातनी और हिंदू धर्म को सनातन धर्म कहना शुरू कर दिया है। और वे अब स्कूलों में भी उर्दू की जगह संस्कृत को थोपना चाहते हैं।

इसलिए मेरा मानना है कि यह भाषा का विवाद नहीं, हिंदी बनाम उर्दू का विवाद नहीं। ये राजनीति का, राजनीति के लिए, राजनीति द्वारा पैदा किया विवाद है। …सीधे सीधे यह मेरा गला घोंटने का प्रयास है। आम जनता को गूंगा बनाने की साज़िश है। अपना धार्मिक, सामाजिक और सियासी प्रभुत्व कायम रखने की कोशिश है।

उर्दू का गला घोंटोगे हिंदी कहां बच पाएगी

हिंदी को मार दोगे तो उर्दू भी ये मर जाएगी

हमें समझना चाहिए कि किसी क्षेत्र, इलाके की भाषा हो सकती है, लेकिन धर्म की भाषा नहीं होती। हां, आप अपने धर्म की पढ़ाई तमाम भाषाओं में कर सकते हैं। भाषा के आधार पर हमारे यहां कई राज्य बने। तमिल, तेलगू, मलयालम, बांग्ला, मराठी, गुजराती आदि के आधार पर प्रदेशों का विभाजन हुआ। लेकिन धर्म के आधार पर नहीं। धर्म और भाषा का रिश्ता होता तो पाकिस्तान का बंटवारा न होता। पाकिस्तान ने अपनी आधिकारिक भाषा उर्दू बनाया, लेकिन न इस्लाम, न उर्दू बांग्लादेश को उसके साथ रखने में कामयाब हो सकी। क्योंकि वहां बांग्ला अस्मिता महत्वपूर्ण थी।

मैं आपसे पूछता हूं

कि क्या अंग्रेज़ी पढ़कर, बोलकर आप ईसाई बन जाते हैं?

क्या कोई हिंदी बोलकर हिंदू बन सकता है?

तो फिर कोई उर्दू सीखकर, बोलकर कैसे मौलवी या मुसलमान बन सकता है।

वैसे भी मौलवी उर्दू पढ़कर नहीं बना जा सकता, अरबी पढ़कर बना जाता है। और उसमें भी जिसने इस्लामी शिक्षा ली हो यानी जो कुरआन, हदीस और शरीयत का जानकार हो, उसे मौलवी कहा जाता है। ये नहीं कि सारे अरबी जानने वाले मौलवी हो जाते हैं। इसके लिए बाक़ायदा डिग्री-डिप्लोमा कोर्स हैं। इसपर किसी जाति या फिरके विशेष का भी कब्ज़ा नहीं। जैसे हिंदू धर्म में पंडित-पुजारी केवल ब्राह्मण ही बन सकते हैं।

हमारे यहां मौलवी का दर्जा इस्लामी शिक्षा का प्रारंभिक स्तर है, जिसे 8-10 वर्षों की पढ़ाई के बाद दिया जाता है। यानी यह हाईस्कूल पास करने के बराबर है। इसके बाद आलिम और फ़ाज़िल बनते हैं।

इसी तरह कठमुल्ला शब्द है। कठ का अर्थ है कठोर, सख़्त। और मुल्ला है- इस्लामी धर्मगुरु। यानी एक ऐसा धार्मिक व्यक्ति, जो कठोर रूढ़िवादी सोच रखता हो और प्रगतिशील विचारों का विरोध करता हो।

इससे साफ़ है कि उर्दू पढ़कर कोई कठमुल्ला नहीं बनता अलबत्ता कठमुल्ला, उर्दू ज़रूर पढ़ सकता है। जैसे हिंदी पढ़कर कोई हिंदू या हिन्दुत्ववादी नहीं बनता, अलबत्ता हिन्दुत्ववादी, रूढ़िवादी ज़रूर अच्छी हिंदी का प्रयोग करते हैं।

सदा अम्बालवी कहते हैं–

अपनी उर्दू तो मोहब्बत की ज़बां थी प्यारे

उफ़ सियासत ने उसे जोड़ दिया मज़हब से

आनंद नारायण मुल्ला कहते हैं–

‘मुल्ला’ बना दिया है इसे भी महाज़-ए-जंग

इक सुल्ह का पयाम थी उर्दू ज़बां कभी

मंसूर उस्मानी ने कहा–

जहाँ जहाँ कोई उर्दू ज़बान बोलता है

वहीं वहीं मिरा हिन्दोस्तान बोलता है

ये सब शे’र या बातें योगी जी, मोदी जी को सुनाने या बताने के लिए नहीं हैं। जैसे मैंने पहले ही कहा वे यह सब जानते हैं और सब जानते-बूझते अपनी राजनीति के तहत ऐसा विवाद खड़ा करते हैं।

ये बातें उन हिंदी, उर्दू वालों के लिए हैं जो दोनों ज़बानों से या तो प्यार करते हैं या फिर किसी बहकावे में आकर ख़ुद भी ऐसा ही समझते हैं कि हिंदी हिंदुओं की और उर्दू मुसलमानों की ज़बान है।

अपने ऐसे हिंदुस्तानियों के लिए कुछ और शे’र –

बचपन ने हमें दी है ये शीरीनी-ए-गुफ़्तार

उर्दू नहीं हम मां की ज़बां बोल रहे हैं

– आज़र बाराबंकवी

जो ये हिन्दोस्तां नहीं होता

तो ये उर्दू ज़बां नहीं होती

– अब्दुल सलाम बंगलौरी

आज भी ‘प्रेम’ के और ‘कृष्ण’ के अफ़्साने हैं

आज भी वक़्त की जम्हूरी ज़बां है उर्दू

– अता आबिदी

सब मिरे चाहने वाले हैं मिरा कोई नहीं

मैं भी इस मुल्क में उर्दू की तरह रहता हूं

– हसन काज़मी

लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है

मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

– मुनव्वर राना

गीत उर्दू ने कहे, लिखने लगी हिंदी ग़ज़ल

मरहबा पास ही आ पहुंची तअस्सुब की अजल

– ओम प्रकाश नदीम

तअस्सुब का अर्थ है कट्टरता, सांप्रदायिकता और अजल, मौत को कहते हैं, शायर ओम प्रकाश नदीम इसी बात को रेखांकित कर रहे हैं कि हिंदी उर्दू वाले इतने करीब आ गए हैं कि कट्टरता की मौत पास आ गई है। आप उनके नाम से ही इस बात को पहचान सकते हैं उनके नाम में हिंदी भी है और उर्दू भी। ओम भी है, प्रकाश भी और नदीम यानी दोस्त भी।

और कट्टरवादी, सांप्रदायिक लोग यही नहीं चाहते। वे चाहते हैं हिंदी-उर्दू और हिंदी-उर्दू वालों में अलगाव रहे, बंटवारा रहे, भाषाए भी धर्मों के नाम से पहचानी जाएं और लोग आपस में लड़ते रहें ताकि उनकी राजनीति चलती रहे।

मुझे लगता है कि अब वक़्त आ गया है कि हम ज़ोर-शोर से कहें–

“दूर हटो ए नफ़रत वालो…हिंदुस्तान हमारा है”

 

Source: News Click